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श्रीलंका के खिलाफ आज से शुरु होने वाली तीन मैचों की वन-डे सीरीज (Sri Lanka Series) का पहला मुकाबला यूं तो कप्तान शिखर धवन (Shikhar Dhawan) से लेकर हर खिलाड़ी के लिए अहम है, लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा और निगाहें टिकी हुई हैं इस टीम के नए हेड कोच राहुल द्रविड़ (Rahul Dravid) पर. ऐसा पहली बार हो रहा है, जब एक ही वक्त पर दो अलग-अलग भारतीय टीम दुनिया के दो अलग-अलग देशों में अलग-अलग फॉर्मेट के लिए क्रिकेट खेल रहीं हैं.
द्रविड़ शायद दुनिया के पहले ऐसे राष्ट्रीय कोच होंगे, जिन्होंने आधिकारिक तौर पर जिम्मेदारी लेने से पहले ही इतना सम्मान पा लिया, जितना अच्छे से अच्छे कोच भी सालों टीम के साथ बिताने के बाद भी हासिल नहीं कर पाते. ज्यादा दूर जाने की बात नहीं, अब इंग्लैंड दौरे पर गई विराट कोहली की कप्तानी वाली टेस्ट टीम के मौजूदा हेड कोच रवि शास्त्री के योगदान से उनकी तुलना कर लीजिए.
कहने को आप कोई भी तर्क दें, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि द्रविड़ को लंका दौरे पर जाने के लिए तैयार करवाने में कहीं न कहीं बीसीसीआई की ये मंशा जरुर रही है कि शास्त्री पर थोड़ा दबाव बनाया जाए. शास्त्री का करार इस साल खेले जाने वाले टी20 वर्ल्ड कप के बाद खत्म हो जाएगा.
नतीजा उस टूर्नामेंट का चाहे जो भी रहे, पर वक्त आ गया है कि शास्त्री शालीनता से टीम को अलविदा कहें. पिछले सात सालों से वो टीम डायरेक्टर से लेकर हेड कोच जैसे अलग-अलग नाम वाले पदों से जुड़ते हुए टीम इंडिया के साथ बने हुए हैं.
ऑस्ट्रेलिया में लगातार दो टेस्ट सीरीज जीतने का कमाल उनकी सीवी में सबसे बड़ी खूबी है, लेकिन इस दौरान अनगिनत हताशा वाले अध्याय भी हैं, जिनमें सबसे अहम पिछले दो वन-डे वर्ल्ड कप में चैंपियन बनना तो दूर, भारतीय टीम फाइनल में भी नहीं पहुंच पाई.
द्रविड़ से बेहतर और कौन विकल्प टीम इंडिया के पास भविष्य में कोच के लिए हो सकता है? दस हजार से ज्यादा रन टेस्ट में और यही कमाल वन-डे में दोहराने वाले दिग्गज बल्लेबाज कोचिंग में हाथ कहां आजमाते हैं? उनके लिए तो कमेंट्री बॉक्स में बैठकर ज्ञान देना ज्यादा आसान काम है और पैसे भी खूब मिलते. लेकिन, द्रविड़ तो द्रविड़ हैं. हर किसी से जुदा.
वो न तो तेंदुलकर की तरह भगवान हैं, न गांगुली की तरह ऐसी शख्सियत जिसे कोई भी राजनीतिक पार्टी बंगाल में मुख्यमंत्री बनाने के लिए कुछ करने को तैयार हो जाए. द्रविड़ का क्रिकेट के प्रति जो समपर्ण का भाव है, उसकी मिसाल भारतीय क्रिकेट में बहुत कम देखने को मिलेगी. लगभग असंभव अगर कोई खिलाड़ी उन्हीं की तरह कामयाब रहा हो.
2013 में क्रिकेट छोड़ने के बाद द्रविड़ बैटिंग सलाहकार के तौर पर 2014 में इंग्लैंड दौरे से पहले टीम इंडिया से जुड़े थे. लेकिन, 2018 में शास्त्री को दोबारा अनिल कुंबले की जगह हेड कोच की जिम्मेदारी मिली, तो उन्हें द्रविड़ का बल्लेबाजी सलाहकार बनना मंजूर नहीं था. बीसीसीआई ने आधिकारिक घोषणा भी आनन-फानन में कर दी, (जहीर खान को भी द्रविड़ की तरह विदेशी दौरों पर गेंदबाजी सलाहकार के तौर पर जुड़ना था) लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. शायद द्रविड़ के करियर में ये पहला मौका था, जब उनकी क्रिकेट योग्यता का किसी ने सार्वजनिक तौर पर ऐसे तिरस्कार किया हो.
खैर, वो बीते वक्त की बात है. अब वही द्रविड़ सलाहकार नहीं, बल्कि फुलटाइम हेड कोच के तौर पर शास्त्री का विकल्प बनकर उभरे हैं. लंका दौरे पर नतीजों से द्रविड़ की साख और उनके भविष्य की संभावनाओं पर रत्तीभर असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि सबसे पहले उन्हें खुद तय करना है कि क्या वाकई में वे खुद को लंबे समय के लिए क्रिकेट दौरे पर समय बिताते देख सकते हैं?
राष्ट्रीय टीम की कोचिंग से अब तक दूर रहने की यही वजह टीम इंडिया के पूर्व कप्तान ने बताई थी, लेकिन अगर लंका दौरे पर उन्हें ड्रेसिंग रूम कल्चर फिर से क्रिकेट के और नजदीक लाने में कामयाब होता है, तो शास्त्री के बाद द्रविड़ का हेड कोच होना सिर्फ औपचारिकता ही होगी. इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा कि धवन की टीम यहां 6-0 से सीरीज जीत कर लौटे या 2-1 के अंतर से दोनों सीरीज हार जाए.
(लेखक स्पोर्ट्स जर्नलिस्ट हैं, जिनके पास 20 साल से अधिक समय तक क्रिकेट को कवर करने का अनुभव है. वे सचिन तेंदुलकर के जीवन और करियर से जुड़ी पुस्तक ‘क्रिकेटर ऑफ द सेंचुरी’ के लेखक हैं.)
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