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कपिल देव एक ऐसे खिलाड़ी थे, जिनमें हर वक्त जीतने का जज्बा उफान मारता था. बॉलिंग हो, फील्डिंग या फिर बैटिंग, वो बुरे से बुरे हालात को अपने खेल से बदलने का माद्दा रखते थे. 1983 वर्ल्ड कप के लिए हमारी टीम वन मैन आर्मी नहीं थी, बल्कि माउंट एवरेस्ट तक को जीत लेने के जोश से भरी 14 खिलाड़ियों की सेना थी.
लॉर्ड्स के मैदान में हुए फाइनल तक के सफर में कई खिलाड़ियों ने अपना-अपना जौहर दिखाया. इनमें टनब्रिज वेल्स में कपिल देव की यादगार 175 रनों की पारी को क्रिकेट इतिहास की महानतम पारी कहा जा सकता है.
मैच से पहले चर्चा हुई कि बैटिंग करके रनों का पहाड़ खड़ा किया जाए और रन रेट बेहतर बनाया जाए. लेकिन अंत में सिर्फ मैच जीतने भर का फैसला किया गया.
टीम उत्साहित थी. श्रीकांत और सुनील गावस्कर ने पारी की शुरुआत की. उनके बाद बैटिंग के लिए मोहिंदर, यशपाल और फिर मेरी बारी थी.
शायद कपिल ने सोचा कि उनकी बैटिंग काफी देर बाद आएगी, लिहाजा वो नहाने चले गए. लेकिन हुआ कुछ और ही. हमारे ओपनर्स जल्द ही निपट गए और फिर मोहिंदर भी आउट हो गए. ये सबकुछ इतनी तेजी से हुआ कि जल्द ही क्रीज पर यशपाल और मैं खड़े थे.
सुनील वाल्सन भागते हुए हमारे पास आए और बताया कि कपिल अभी तक नहा रहे हैं. मेरे बाद उनकी बैटिंग थी. पीटर रॉसन की एक बॉल को ऑनसाइड पर फ्लिक करने के चक्कर में मैं भी आउट हो गया. कुछ ही पलों में भारत का स्कोर 17/5 पर पहुंच चुका था!
मुझे याद है कि टनब्रिज वेल्स का ड्रेसिंग रुम बेसमेंट में था. जब मैं ड्रेसिंग रुम में पहुंचा, तो उस वक्त सुनील, मोहिंदर, यशपाल और श्रीकांत गुमसुम बैठे हुए थे. उनके चेहरे भावहीन थे.
शायद ड्रेसिंग रुम में वो मेरी जिंदगी का सबसे कड़वा अनुभव था.
कहीं एक और विकेट तो नहीं गिरा? चौका लगा या छक्का? हमें कुछ भी मालूम नहीं था. ऊपर जाकर मैच का हाल देखने की हिम्मत किसी में नहीं थी.
दर्शकों का शोर बढ़ता जा रहा था और हम पांच ड्रेसिंग रुम में बैठे एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे. आखिरकार श्रीकांत उठे और मैच देखने के लिए ऊपर गए. उसके पीछे-पीछे हम सभी हो लिये. इसके बाद हमने जो देखा, वो चमत्कार से कम नहीं था. हमें अपनी आंखों पर भरोसा नहीं हो पा रहा था.
मैदान पर सिर्फ कपिल का जलवा छाया हुआ था. क्रिकेट के इतिहास में इतनी बेहतरीन पारी कभी नहीं खेली गई थी. एक कहावत मेरी आंखों के सामने चरितार्थ होते दिख रही थी – धीमे और लगातार चलने वाला ही रेस जीतता है.
क्रीज पर जमने के लिए उन्होंने थोड़ा वक्त लिया. वो चौकन्ने थे, लेकिन हालात पूरी तरह उनके काबू में था.
उस मैच में कपिल के 175 रन इस बात का जीता-जागता उदाहरण थे कि खुद पर काबू रखते हुए आक्रामकता कैसे दिखाई जा सकती है. पारी को रफ्तार देने का इससे बेहतरीन उदाहरण कुछ नहीं हो सकता था.
ये चमत्कार कपिल जैसा असली चैम्पियन ही दिखा सकता था.
एक वक्त हम सब हताश थे, लेकिन अब ड्रेसिंग रूम में उत्साह से भरे थे और ड्रेसिंग रूम में अपने कप्तान की हौसला अफजाई कर रहे थे.
18 जून 1983 को जिम्बाबवे पर 31 रनों की उस जीत से ना सिर्फ सेमीफाइनल तक पहुंचने का रास्ता साफ हुआ, बल्कि हमारे अंदर ये आत्मविश्वास भी पैदा हुआ कि हम बुरी से बुरी हालत में बेहतरीन प्रदर्शन कर सकते हैं.
क्रिकेट सही टाइमिंग, भरोसे और आत्मविश्वास का खेल है और इन तीनों ही मोर्चों पर उत्साह से भरे हुए थे. ये कहना गलत नहीं होगा कि कपिल की उस पारी ने भारतीय क्रिकेट की दशा-दिशा बदल दी थी.
वर्ल्ड कप जीतने के बाद स्वर्गीय मैडम इन्दिरा गांधी ने कहा था, कि इस नारे पर उनका विश्वास और मजबूत हुआ है: “भारत समर्थ है.”
लेकिन हमारे लिए सिर्फ एक ही समर्थ व्यक्ति था: कपिल देव.
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