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अगर इंग्लैंड में टेस्ट मैच के लिए सिर्फ एक स्पिनर की जगह बने तो अश्विन और जडेजा में किस को प्राथमिकता मिलनी चाहिए? ” जून के महीने में जब टीम इंडिया इंग्लैंड के दौरे पर 6 टेस्ट मैच खेलने के लिए रवाना हुई तो इस लेखक ने भारत के पूर्व खिलाड़ियों के अलावा दुनिया के अलग-अलग हिस्सों और दूसरे देशों के दिग्गजों से यही सवाल बारी-बारी से पूछा तो जवाब लगभग एक जैसे ही थे. आप खुद देखें.
अश्विन का टीम में होने का मतलब है एक खास खिलाड़ी का होना”- डेविड गावर, इंग्लैंड के पूर्व कप्तान
न्यूजीलैंड के खिलाफ वर्ल्ड टेस्ट चैंपियनशिप के फाइनल में भारतीय कप्तान विराट कोहली (Virat Kohli) ने वही किया, जिसकी उनसे हर कोई अपेक्षा करता था, लेकिन वो मैच क्या हारे, कप्तान का भरोसा अपने सबसे बड़े मैच-विनर से तुरंत हिल गया. इंग्लैंड के खिलाफ नाटिंघम में खेले गये पहले टेस्ट में अश्विन का नहीं होना हर किसी को हैरान कर गया, लेकिन उससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात रही कि कोहली ने लगातार दूसरे टेस्ट में भी 413 टेस्ट विकेट लेने वाले खिलाड़ी को नजरअंदाज कर दिया.
सुनील गावस्कर, वीवीएस लक्ष्मण,आशीष नेहरा, आकाश चोपड़ा, शॉन पॉलक समेत कमेंट्री बॉक्स में बैठे हर एक्सपर्ट कोहली के इस फैसले से अचंभित दिखे. ऐसे में सवाल फिर से वही कि भाई जब किसी को बाहर बिठाने की बात आती है, तो अश्विन जैसे चैंपियन को ही कोई ना कोई तर्क देकर आखिर हटा क्यों दिया जाता है?
क्रिकेट के मूलभूत स्वभाव में ही पक्षपाती भाव
सबसे पहली और अहम वजह तो है, क्रिकेट के मूलभूत स्वभाव में बल्लेबाजों और गेंदबाजों को लेकर पक्षपात वाला नजरिया. उप-महाद्वीप की बल्लेबाजी वाली पिचों पर रनों का अंबार खड़ा करने वाले बल्लेबाजों के चयन की बात जब ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, न्यूजीलैंड या फिर साउथ अफ्रीका जैसे मुल्कों में बात आती है, तो कोई ये नहीं कहता है कि ऐसी पिचों पर आपको दूसरे किस्म के बल्लेबाज चाहिए. लेकिन, गेंदबाजों को और खासतौर पर स्पिनर को दोहरी परीक्षा से हमेशा गुजरना पड़ता है.
जडेजा से जबरदस्ती तुलना क्यों?
लेकिन, ऐसा होता नहीं है. टीम रविंद्र जडेजा को शामिल करने के लिए ये तर्क दे देती है कि सौराष्ट्र का खिलाड़ी बायें हाथ से बल्लेबाज के तौर पर विविधता देता है और साथ ही अश्विन से बेहतर बल्लेबाज भी है. विदेशी जमीन पर 2018 की शुरुआत से जडेजा का टेस्ट क्रिकेट में बल्लेबाजी औसत 40 से ऊपर है, तो अश्विन का 17 से कम. लेकिन क्या इन्हीं आकंड़ों का सहारा लेकर देश के सबसे बड़े मैच-विनर को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाना चाहिए.
अब आप खुद सोचिये कि जिस खिलाड़ी ने भारत के लिए सबसे ज्यादा मैन ऑफ द सीरीज का खिताब जीता हो ( सचिन तेंदुलकर, अनिल कुंबले, कपिल देव, सुनील गावस्कर और कोहली जैसे दिग्गजों को पछाड़कर) उसे कितनी निर्ममता से बाहर कर दिया जाता है. शायद इसलिए गावस्कर ने कई मौकों पर ये कहा है कि अश्विन के साथ मैनेजमेंट का रवैया सही नहीं है, क्योंकि उन्हें कोहली की कप्तानी के लिए खतरे वाले विकल्प के तौर पर भी देखा जाता है.
हां, एक बात जो पिछले कुछ सालों में अश्विन के खिलाफ गयी है वो ये कि वो लंबी टेस्ट सीरीज के दौरान हर मैच में फिट नहीं रह पाते हैं. पिछली बार 2018 में इंग्लैंड के ही दौरे पर उन्होंने शुरुआत बहुत अच्छी की थी, लेकिन फिर फिटनेस से जूझते रहे और पूरे 5 मैच नहीं खेल पाये. इतना ही नहीं संजय मांजरेकर समेत कई आलोचक ये भी दलील देतें हैं कि विदेशी पिचों पर उनसे पारी में 5 विकेट नहीं निकलते हैं.
रोहित-रहाणे-पुजारा हैं भाग्यशाली
अब खुद सोचिये कि शर्मा जैसे खिलाड़ी ने पिछले 15 साल के करियर में विदेश में अब तक एक भी टेस्ट सैकड़ा नहीं जमाया है, लेकिन क्या मजाल कि कोई उनके इंग्लैंड में ओपनर होने पर सवाल खड़ा कर दे.
चेतेश्वर पुजारा और अंजिक्य रहाणे जैसे सीनियर बल्लेबाज अपने तीसरे इंग्लैंड दौरे पर हैं, लेकिन इसके बावजूद उनका यहां पर औसत करीब 25 का ही है. बावजूद इसके कोई ये तर्क नहीं देता है कि इंग्लैंड में आप इन दोनों को मत खिलाना, बल्कि किसी और बल्लेबाज जैसे कि हनुमा विहारी को शामिल कर लें, क्योंकि उनका रिकॉर्ड विदेश में ज्यादा बेहतर है. लेकिन, अश्विन जैसे चैंपियन गेंदबाज को ही हर बार अपनी काबिलियत का लोहा मनवाने के लिए परीक्षा से क्यों गुजरना पड़ता है? आप ही सोचें और बताएं.
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