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ये बहस नई नहीं है कि क्या राजनीति को खेलों से जोड़ना चाहिए? लेकिन जब-जब ये बहस चर्चा में आई हर बार मामला गरम रहा. भारत-पाकिस्तान के संदर्भ में तो ये मामला और ही ज्यादा गरमाया है. इन दिनों बहस डेविस कप को लेकर है.
एक तरफ पाकिस्तान में भारतीय खबरों और फिल्मों के प्रसारण तक पर रोक लगा दी गई है. दूसरी तरफ पाकिस्तान टेनिस महासंघ भारतीय टीम की मेजबानी के इंतजार में है. अगले महीने वहां डेविस कप खेला जाना है.
आपको बता दें कि पांच दशक से भी ज्यादा समय के बाद भारतीय टीम पाकिस्तान में डेविस कप खेलने जाने वाली थी. आखिरी बार भारतीय टेनिस टीम 1964 में पाकिस्तान गई थी. इसलिए उम्मीद थी कि तमाम आशंकाओं को दरकिनार कर भारतीय खिलाड़ी वहां जाएंगे. लेकिन पिछले कुछ दिनों में हालात तेजी से बदले.
अब वापस लौटते हैं अपने शुरूआती सवाल पर कि क्या राजनीति को खेलों से जोड़ना चाहिए? इस सवाल का जवाब जानने के लिए पिछले डेढ़ दशक के घटनाक्रम को समझना होगा.
डेविस कप के मैच इस्लामाबाद में खेले जाने थे. पाकिस्तान टेनिस फेडरेशन के अधिकारियों ने कहा कि इस्लामाबाद में खिलाड़ियों की सुरक्षा का कोई मसला नहीं है. बावजूद इसके वो भारतीय टीम के फैसले का सम्मान करेंगे.
खिलाड़ियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी से 2004 में भारतीय क्रिकेट टीम का ऐतिहासिक पाकिस्तान दौरा याद आता है. दिलचस्प बात ये भी है कि इस समय पाकिस्तान की बागडोर एक ऐसे शख्स के हाथ में है जो खुद भी खिलाड़ी रहा है. इमरान खान की कप्तानी में ही पाकिस्तान ने वर्ल्ड कप जीता था.
खैर, 2004 की बात है. भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्तों में बेहतरी के प्रयास चल रहे थे. दोनों मुल्क के नेताओं की चाहत थी कि सीमा पर अमन वापस लौटे. ऐसे वक्त में क्रिकेट डिप्लोमेसी हुई.
भारतीय गृह मंत्रालय और विदेश मंत्रालय के अधिकारियों ने पाकिस्तान का दौरा किया. बीसीसीआई के अधिकारी भी वहां गए.
पाकिस्तान ने पुख्ता सुरक्षा व्यवस्था का हवाला दिया. पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ और भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी खुद इस सीरीज में काफी इंटरेस्ट ले रहे थे.
आखिरकार गृह मंत्रालय की हरी झंडी के बाद भारतीय टीम सौरव गांगुली की कप्तानी में पाकिस्तान के लिए रवाना हुई. पाकिस्तान जाने से पहले भारतीय प्रधानमंत्री ने भारतीय खिलाड़ियों से कहा- मैच ही नहीं दिल भी जीतिए. 10 मार्च को जब टीम इंडिया पाकिस्तान के लिए रवाना हुई तो उस फ्लाइट में मैं भी था.
इसके बाद 2004 से लेकर 2006 के बीच मैंने पाकिस्तान के चार दौरे किए. लाहौर, कराची, रावलपिंडी, इस्लामाबाद, फैसलाबाद, मुल्तान, पेशावर जैसे शहरों में जाने और ठहरने का मौका मिला.
यकीन मानिए पाकिस्तान में भी खेलों का वही क्रेज है जो हिंदुस्तानियों का है. ये बात सिर्फ क्रिकेट पर नहीं बल्कि हॉकी और फुटबॉल जैसे खेलों पर भी लागू होती है. लाहौर के गद्दाफी क्रिकेट स्टेडियम से सड़क पार करते ही फुटबॉल और हॉकी के स्टेडियम हैं.
जिन मैदानों में कभी अंतरराष्ट्रीय स्टार उतरा करते थे आजकल वहां सन्नाटा है. इस सन्नाटे पर पाकिस्तान के पूर्व दिग्गज खिलाड़ी आमिर सोहेल कहते हैं-
सोहेल कहते हैं कि पीएसएल में तो खूब दर्शक मैच देखने आते हैं, लेकिन अब बच्चे क्रिकेट मैदान में जाकर स्टार बनने का सपना नहीं देख रहे और ये हाल सभी खेलों का है.
क्रिकेट के अलावा इस परेशानी की आंच बाकि खेलों तक भी पहुंची है. एक वक्त था हिंदुस्तान पाकिस्तान एशियाई खेलों की दुनिया में दो बड़ी ताक़तें थीं.
स्कवाश के खेल में जहांगीर खान का नाम पूरी दुनिया ने सुना. लेकिन ये बदक़िस्मती है कि अब पाकिस्तान में तमाम खेल असमय दम तोड़ रहे हैं. बात किसी एक खेल की नहीं पड़ोसी मुल्क में ओवरऑल खेलों की स्थिति बहुत खराब है. खेलों की असमय मौत हो रही है.
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