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अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा (NASA) शनिवार, 3 सितंबर को अपने सबसे पावरफुल रॉकेट को फिर से लॉन्च करने की कोशिश करेगा. इससे पहले जब सोमवार को जब ने आर्टेमिस-1 मून मिशन को लॉन्च करने की कोशिश की थी तो उसे तकनीकी कारणों और मौसम की दिक्कतों के कारण लॉन्च टालना पड़ा था. स्पेस लॉन्च सिस्टम (SLS) रॉकेट को भेजने के लिए आज शनिवार को NASA के पास दो घंटे का विंडो है, जो स्थानीय समयानुसार 14:17 (भारत में रात 11:47 बजे) से शुरू होगा.
बता दें कि करीब 50 साल बाद अपने मून मिशन आर्टेमिस-1 (Artemis-1 Moon Mission) के जरिए इंसानों को चांद पर दोबारा भेजने की तैयारी कर रहा है.चलिए आपको बताते हैं इस मिशन से जुड़े अहम सवालों के जवाब.
नासा आर्टेमिस मून मिशन (NASA Artemis Moon Mission) के जरिए एक बार फिर चांद पर मनुष्यों को भेजने की तैयारी कर रहा है. हालांकि, आर्टेमिस-1 एक मानवरहित मिशन है. नासा के मेगारॉकेट के जरिए ओरियन क्रू कैप्सूल (Orion crew capsule) को चांद तक भेजा जाएगा. इसके साथ ही अंतरिक्ष में कुछ सैटेलाइट्स भी भेजे जाएंगे.
आर्टेमिस-1 मिशन का सबसे बड़ा लक्ष्य चांद पर पहुंचना और अंतरिक्ष यात्रियों की सुरक्षित वापसी का पता लगाना है. इस मिशन के जरिए नासा यह जानने की कोशिश करेगा कि क्या अंतरिक्ष यात्रियों के लिए चांद पर सही हालात हैं या नहीं. इसके साथ ही क्या एस्ट्रोनॉट्स चांद पर जाने के बाद पृथ्वी पर सुरक्षित लौट सकेंगे या नहीं.
रिपोर्ट्स के मुताबिक साइंटिस्ट्स इस मिशन में पौधों के बीज भी भेज रहे हैं. इसके साथ ही, एल्गी (Algae), फंगी (Fungi) और यीस्ट (Yeast) भेज रहे हैं, ताकि रेडिएशन के असर का अध्ययन किया जा सके और ये पता चल सके कि बायोलॉजिकल सिस्टम्स गहरे अंतरिक्ष में कैसे रहते हैं और कैसे विकसित हो सकते हैं. वे उड़ान से पहले और बाद में डेटा इकट्ठा करेंगे और होने वाले बदलावों का विश्लेषण करेंगे.
नासा के हाई-टेक, स्वचालित ओरियन कैप्सूल (Orion crew capsule) का नाम एक नक्षत्र पर रखा गया है. यह 11 फीट यानी 3 मीटर लंबा है जो कि अपोलो के कैप्सूल की तुलना में काफी बड़ा है. इसमें तीन के बजाय चार अंतरिक्ष यात्रियों के बैठने की जगह है.
ओरियन में इंसानों की जगह पुतलों को बैठाया जाएगा है. इससे नासा नेक्स्ट जेनेरेशन स्पेससूट और रेडिएशन लेवल का अध्ययन करेगा. पुतलों के साथ स्नूपी सॉफ्ट टॉय को भी भेजा जा रहा है, जो कैप्सूल के चारों ओर तैरेगा और जीरो ग्रैविटी इंडिकेटर के तौर पर काम करेगा.
आर्टेमिस-1 मिशन के लिए नासा की ओर से नया और सुपर हैवी रॉकेट का इस्तेमाल किया जा रहा है. इसमें स्पेस लॉन्च सिस्टम लगाया गया है जिसका पहले कभी-भी इस्तेमाल नहीं किया गया है. नया रॉकेट सैटर्न-5 रॉकेट के मुकाबले छोटा और पतला है, जिसके जरिए आधी सदी पहले 24 अपोलो अंतरिक्ष यात्रियों को चंद्रमा पर भेजा गया था. नासा का ये मेगारॉकेट 322 फीट लंबा और 2,600 टन वजनी है.
नासा का ये मिशन 6 हफ्ते यानी 42 दिन का होगा. 2,40,000 मील (3,86,000 किलोमीटर) दूर चंद्रमा तक पहुंचने में इसे लगभग एक सप्ताह का समय लगेगा. चंद्रमा के चारों ओर घूमने के बाद, कैप्सूल 38,000 मील (61,000 किलोमीटर) दूर की कक्षा में प्रवेश करेगा. उस वक्त पृथ्वी से ओरियन की दूरी करीब 2,80,000 मील (4,50,000 किलोमीटर) होगी.
अगर सबकुछ ठीक रहा तो 10 अक्टूबर को क्रू कैप्सूल धरती पर वापस आ जाएगा. ओरियन का सबसे बड़ा टेस्ट मिशन के अंत में होगा, जब वह 25,000 मील प्रति घंटे (40,000 किमी प्रति घंटे) की रफ्तार से पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करेगा. ओरियन में भी अपोलो कैप्सूल जैसा ही हीट शील्ड लगाया गया है, जो 5,000 डिग्री फारेनहाइट (2,750 डिग्री सेल्सियस) के रिएंट्री तापमान को सह सकता है.
नासा के पहले ह्यूमन मून मिशन का नाम अपोलो था. ग्रीक माइथोलॉजी में अपोलो और आर्टेमिस जुड़वा भाई-बहन हैं. जहां अपोलो को सूर्य का देवता माना जाता है. वहीं आर्टेमिस को चंद्रमा की देवी कहा जाता है.
50 साल बाद भी अपोलो नासा की सबसे बड़ी उपलब्धियों में शुमार है. 1960 के दशक की तकनीक का उपयोग करते हुए नासा को चांद की सतह पर एस्ट्रोनॉट्स उतारने में सिर्फ आठ साल लगे थे. इसके विपरीत, आर्टेमिस की प्लानिंग में एक दशक से ज्यादा का समय लग चुका है.
1969 से 1972 के बीच अपोलो के 12 अंतरिक्ष यात्रियों ने चंद्रमा पर चहल-कदमी की, जो एक समय में तीन दिन से ज्यादा नहीं रुके थे. अब नासा आर्टेमिस के जरिए चंद्रमा पर एक सप्ताह तक समय बिताने का लक्ष्य बना रहा है. इसके साथ ही नासा की नजर मंगल पर भी मानव मिशन भेजने की है.
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