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दानी तो बहुत देखे, लेकिन लाठी के बलपर दान देने वाला पहली बार देख रहा हूं. फेसबुक का फ्री बेसिक्स लाठी के बल पर दान देने वाली कैटेगरी में ही है.
आईआईटी के कई प्रोफेसर विरोध में हैं. कई देसी कपनियों ने इसके खिलाफ आवाज उठाई है.
नंदन निलेकनी ने साफ कह दिया है कि फ्री बेसिक्स इंटरनेट की स्वतंत्र आत्मा के खिलाफ है. कुछ राज्यों के मुख्यमंत्रियो ने भी विरोध जताया है.सांसदों ने ट्राई को चिट्ठी लिखकर इस योजना पर अपनी आपत्ति दर्ज कराई है.
लेकिन फेसबुक अपनी जिद पर अड़ा है. अखबारों में विज्ञापन दिए जा रहे हैं. लोगों को मैसेज भेजे जा रहे हैं कि वो फेसबुक की इस मुहिम में शामिल हो ताकि सरकार पर फ्री बेसिक्स लागू करने के लिए दवाब डाला जा सके.
इसे जानने से पहले यह जान लें कि फ्री बेसिक्स है क्या. फ्री बेसिक्स नाम से ही बहुत कुछ पता चलता है. फेसबुक का दावा है कि इंटरनेट की बुनियादी सुविधाएं वो गरीब लोगों को मुफ्त में मुहैया कराएगा.
मतलब यह कि डिजिटल डिवाइड को खत्म करने की सरकारी मुहिम को वो आगे बढ़ाएगा.
बड़ी अच्छी बात है. यह तो नेक इरादा है.
लेकिन नेकी कभी भी लाठी के बल पर नहीं की जाती है. और इसके लिए साम, दाम, दंड, भेद का सहारा नहीं लिया जाता है.
एक अमेरिकी कंपनी हमारे यहां नेकी करे और वो भी बिना किसी स्वार्थ के यह भी हजम नहीं होता है. पेंच कहां है यह जानने के लिए यह स्कीम काम कैसे करेगी इसे जानना जरूरी है.
ये है फेसबुक के फ्रीडम की परिभाषा
और इससे भी बड़ी बात
‘जैसा कि आईआईटी मुंबई के प्रोफेसर एक न्यूज़ चैनल पर बता रहे थे’-
इंटरनेट पर हम क्या-क्या करेंगे इस सबका रिकार्ड फेसबुक के पास होगा. जैसा कि हम जानते हैं कि इंटरनेट अपने आप में एक दुनिया है. इसमें हम सबका एक प्राइवेट किनारा है.
इस निजी कोने में हम नेट बैंकिंग करते है, अपना इनकम टैक्स रिटर्न फाइल करते है, कारोबार करते हैं, शेयर की खरीद बिक्री करते हैं.
क्या हम चाहेंगे कि इस निजी कोने पर किसी और की पहुंच हो. शायद नहीं.
नेट बैंकिंग की जानकारी बैंको के पास रहती है. लेकिन बैंक और ग्राहक के बीच एक ट्रस्ट होता है. एक करार होता है. किसी थर्ड पार्टी पर यह टस्ट नहीं हो सकता है.
लेकिन क्या फ्रीस बेसिक्स के साथ जुड़ने से हमारा प्राइवेट कोना प्राइवेट रह पाएगा? क्या इंटरनेट पर मेरी सारी ब्राउजिंग का सारा इतिहास और भूगोल हम किसी और को सौंपने में सहज महसूस कर पाएंगे?
किसी और को क्या हम यह अधिकार दे सकते हैं कि हम क्या पढ़े और क्या देखें? अपने विचारों का रिमोट कंट्रोल हम किसी और को दे सकते हैं क्या? ऐसा करना क्या अपनी आजादी को सरेंडर करना जैसा नहीं होगा?
जब मामले पर बहस हो रही है तो इन सब पहलुओं पर भी गौर फरमाने की जरूरत है.
मैं फेसबुक की नीयत पर शक करना नहीं चाहता हूं. लेकिन दान के नाम पर किसी और को अपना बिजनेस साम्राज्य बढ़ाने का जरिया भी हम बनना नहीं चाहते हैं. इंटरनेट की स्वच्छंद दुनिया में हमें स्पीड ब्रेकर नहीं चाहिए.
आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक साल में हमने देश में दस करोड़ लोगों को इंटरनेट से जोड़ा है. इसका मतलब यह कि लोगों को इंटरनेट से जोड़ने के लिए हमें किसी खैरात की जरूरत नहीं है. हमारा देश इसे करने के लिए खुद सक्षम है.
फेसबुक अगर इस मुहिम में अपना योगदान देना चाहता है तो नंदन निलेकनी का सुझाव मानकार सरकारी मुहिम में अपना आर्थिक योगदान दे दे.
डिजिटल डिवाइड को हम कैसे खत्म करेंगे, इसका फॉर्मूला हमारा खुद का होना चाहिए. फ्रीडम आफ च्वाइस के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता है.
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