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मेमोरी एडिटिंग:बुरी यादें खत्म-अच्छी वाली रह जाएं,क्या ये संभव है?

वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के चलते मिटाई जा सकती हैं बुरी यादें

प्रदीप
टेक्नोलॉजी
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 वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के चलते मिटाई जा सकती हैं बुरी यादें
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वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के चलते मिटाई जा सकती हैं बुरी यादें
फोटो: : iStock)

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हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में होने वाली ज्यादातर घटनाएं हमारे दिमाग में यादों के रूप में इकट्ठी होती रहती हैं. जहां अच्छी और यादगार यादें हमारे मन-मस्तिष्क में अक्सर कौंधती रहती हैं वहीं पुरानी दुखद और कड़वी यादें वक्त बेवक्त तकलीफ पहुंचाती हैं. अक्सर हमारे दिमाग में ये खयाल आता है कि काश हम जीवन को मुश्किल और तकलीफदेह बनाने वाली यादों को मन के कागज से मिटा पाते और जीवन को खुशनुमा और आसान बनाने वाली अच्छी यादों को और मजबूत कर पाते. वर्तमान वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के चलते ऐसा करना निकट भविष्य में मुमकिन हो सकता है.

कड़वी यादों को मिटाकर नई जिंदगी की शुरुआत

कई साइंस फिक्शन नॉवेल्स और हॉलीवुड फिल्मों में दिमाग से गैर जरूरी और तकलीफदेह यादों को मिटाने की तकनीक देखने को मिलती है. 2004 में आई हॉलीवुड मूवी ‘इंटरनल सनशाइन ऑफ द स्पॉटलेस माइंड’ में ये फिल्माया गया था कि किस तरह से एक प्रेमी जोड़ा अपने रिश्ते की तकलीफदेह और कड़वी यादों को मिटाता है ताकि वो दोनों एक नई जिंदगी की शुरुआत कर सकें. 1997 में शुरू हुई हॉलीवुड सीरीज ‘मेन इन ब्लैक’, 2012 में आई ‘टोटल रीकॉल’, ‘द इनक्रेडिबल्स-2’ (2018) और ‘फ्रोजन’ (2013) भी ऐसी ही फिल्में हैं जिनमें अलग-अलग वजहों से यादों को मिटाया गया है.

क्या वाकई मुमकिन है यादें मिटा देना?

अक्सर ऐसा माना जाता रहा है कि साइंस फिक्शन में की गईं कल्पनाएं भविष्य में नए आविष्कार का रूप ले सकती हैं. इंसानी यादों को एडिट करने की तकनीक यानी मेमोरी एडिटिंग (Memory editing) का विचार भी अब सच होने को है. अब दिमाग से न केवल बुरी यादों को मिटाना मुमकिन होगा, बल्कि उनकी जगह मन के कोरे कागज पर अच्छी और खुशनुमा यादें भी लिखी जा सकेंगीं. अब न्यूरोसाइंटिस्ट्स के लिए मस्तिष्क में यादों को निर्मित करने वाले सिनैप्टिक बदलावों (synaptic changes) को पहचानना संभव हो गया है. वैज्ञानिकों द्वारा अब तक यह तकनीक अकशेरुकी प्राणियों (Invertebrates) पर कामयाबीपूर्वक अपनाई जा चुकी है. इन प्राणियों में कुछ खास यादों (Specific memories) को पहचान कर एडिट करना मुमकिन हो गया है.

हालांकि हम इन्सानों और दूसरे कशेरुकी प्राणियों (Vertebrates) में यादों का फॉर्मूलेशन इतना ज्यादा पेचीदा होता है कि फिलहाल उन्हें इस तकनीक से एडिट करना संभव नहीं है. बहरहाल, जीव विज्ञानी अपनी प्रयोगशालाओं में मेमोरी एडिटिंग की नई तकनीक खोजने में जुटे हुए हैं जिसका मकसद दुखद और कड़वी यादों से पैदा हुए भावनात्मक ज्वार (Emotional fear), डिप्रेशन, अल्जाइमर, डिमेन्शिया आदि से ग्रस्त रोगियों के उपचार और नशे के आदी लोगों में नशे की लत को कम करना है.

चूहों की जीन्स में बदलाव

तकलीफदेह और कड़वी यादों को मिटाने के लिए न्यूरोसाइंटिस्ट्स ऑप्टोजेनेटिक्स तकनीक को आजमा रहे हैं. मस्तिष्क के अध्ययन में ऑप्टोजेनेटिक्स तकनीक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है, इस तकनीक के जरिए वैज्ञानिक प्रकाश की किरणों का इस्तेमाल कर मानव शरीर की जटिल क्रियाओं की जांच-पड़ताल करते हैं. फिलहाल नर्व सेल्स के अध्ययन के लिए ऑप्टोजेनेटिक्स एक स्टैंडर्ड मेथड के रूप में स्थापित हो चुका है.

वैज्ञानिकों ने मेमोरी एडिटिंग के लिए जेनेटिकली मॉडिफाइड चूहों पर विभिन्न प्रयोग किए क्योंकि चूहों का मस्तिष्क तुलनात्मक रूप से सरल होता है. साथ ही चूहों के जीन में इस तरह के बदलाव किए गए कि जब उनके नर्व सेल्स को एक्टिव किया जाए तो वे हरे रंग के हो जाएं. साथ ही साथ इन नर्व सेल्स के सेंसिटिव प्रोटीन प्रकाश की किरणों के इस्तेमाल से ऑन और ऑफ भी हो जाएं.

फिलहाल इस तकनीक के इस्तेमाल से जंतुओं में भावनात्मक यादों को मिटाने में कामयाबी मिली है. लेकिन विशेषज्ञ इस तकनीक को इंसानों के लिए सुरक्षित नहीं मानते, क्योंकि इसमें ज्यादा चीर-फाड़ की जरूरत पड़ती है. वैसे भी एक्सपेरिमेंटल लेवल पर कामयाबी मिलने के बाद भी किसी भी टेक्नोलॉजी को मेडिकल उपयोग में लेने से पहले कई क्लिनिकल ट्रायल्स से गुजरना पड़ता है. फिर भी इस दिशा में लगातार हो रहे शोध ये उम्मीद जगाते हैं कि निकट भविष्य में दुखद यादों को मिटाना आसान हो जाएगा.

किसी कंप्यूटर की तरह काम करता है दिमाग

वैज्ञानिक कहते हैं कि मानव मस्तिष्क कंप्यूटर की तरह काम करता है. मस्तिष्क में स्थित हिप्पोकैम्पस और कार्टेक्स अनुभवों, घटनाओं को हमारे दिमाग में लंबे वक्त तक याद रखते हैं. यूं कहें हिप्पोकैम्पस एक कंप्यूटर हार्डडिस्क की तरह काम करता है, जिसका काम ही है हमारी यादों को सहेजना या इकट्ठा करना. अच्छी और बुरी यादों को एमिग्डाला डिकोड करता है. हिप्पोकैम्पस और एमिग्डाला के आपसी तालमेल से ही हमें अच्छे-बुरे का अनुभव होता है. दरअसल जब हमें कोई भी बात दोबारा याद करनी होती है तो कार्टेक्स से यह मेमोरी हिप्पोकैम्पस में जाती है और उसके बाद हमें पुरानी बातें याद आ जाती हैं.

वैज्ञानिकों ने पाया है कि मस्तिष्क के इन भागों (कार्टेक्स, हिप्पोकैम्पस और एमिग्डाला) के बीच का संपर्क बेहद लचीला होता है. इस संपर्क में ही छेड़छाड़ कर यादों के साथ फेरबदल की जा सकती है. यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के न्यूरोसाइंटिस्टों ने जेनेटिकली मॉडिफाइड चूहों के दिमाग के इन्हीं तीन हिस्सों के बीच के संपर्क में फेरबदल कर चूहों की पुराने यादों को मिटाने और नई यादों को गढ़ने में कामयाबी पाई है.

वैज्ञानिकों के मुताबिक फिलहाल मनुष्य के लिए इस तकनीक को काम में लेना सुरक्षित नहीं है. वैसे ये रिसर्च वैज्ञानिकों को इंसानी दिमाग के भी उन हिस्सों की पड़ताल करने में मदद करेगी जो अच्छी और बुरी यादों से जुड़े होते हैं. अगर रिसर्च से ये साबित हो गया कि इंसान में भी हिप्पोकैम्पस के निचले भाग की एक्टिविटी रेट, डिप्रेशन और अन्य नकारात्मक भावनाओं के लिए जिम्मेदार है तो ऐसे मरीजों के इलाज में खासा मदद मिलेगी.
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कैसे होती है यादों की पहचान?

मस्तिष्क में जब कोई स्मृति (Memory) बनती है तो उसमें दृश्य, श्रव्य, और स्पर्श आदि सभी संवेदनाएं शामिल होती हैं. किसी घटना विशेष की यादें किसी एक जगह तक सीमित नहीं होती इसलिए उसे यांत्रिक दृष्टि से हटाना मुश्किल है. इस कठिनाई से छुटकारा पाने के लिए न्यूरोसाइंटिस्ट किसी विशिष्ट समय में जब किसी स्मृति विशेष से जुड़े न्यूरॉन एक्टिव होते हैं, उन्हें पहचानते हैं. ये वो वक्त होता है जब सिलसिलेवार रूप से किसी स्मृति में बदलाव और स्थायीकरण (Memory stabilization) होता है.

ऐसी दशा में बार- बार उस याद से जुड़े न्यूरोंस एक्टिव होते हैं, चाहे व्यक्ति सो रहा हो या जाग रहा हो. ये प्रक्रिया स्मृति का स्थायीकरण (Memory hardening) कहलाती है. ऐसे सेंसिटिव प्रोटीन जो सिनैप्टिक परिवर्तनों के लिए जिम्मेदार होते हैं, उनके संपर्क में रुकावट पैदा कर यादों को सख्त होने से रोका जा सकता है. कई अकशेरुकी प्राणियों में इस तकनीक से तुरंत बनी यादों को मिटाया जा सका है. मगर ये प्रोटीन कुछ समय पहले की सभी यादों को मिटा देते हैं, इसलिए चिकित्सीय दृष्टि से इन्हें इंसानों के मेमोरी की एडिटिंग के लिए काम में लेना सुरक्षित नहीं है.

इंसानों पर व्यापक चीर-फाड़ वाली ऑप्टोजेनेटिक्स तकनीक की बजाय वर्तमान में न्यूरोसाइंटिस्ट मनोवैज्ञानिक तकनीकों को आजमाने की वकालत करते हैं. दरअसल हम इंसानों की ये खूबी है कि किसी दुखद घटना का संपर्क (companionship) अगर खुशनुमा यादों से करा दिया जाए तो नकारात्मक भावनाओं और डर का एहसास कम हो जाता है.

इस पर रिसर्च करने वाले जापानी वैज्ञानिक सुसुमु टोनेगावा के मुताबिक फर्क इस बात से पड़ता है कि अच्छी या बुरी यादें आप पर कितनी हावी हैं. दोनों ही एहसास दिमाग में अपने सर्किट बनाते हैं और आपस में लड़ते हैं. ऐसे प्रयोग चूहों पर भी किए गए हैं. चूहों को पिंजरे में रखने पर उनमें डर और नकारात्मक भावनाएं पैदा होती हैं. अगर नर चूहे को पहले एक घंटे तक मादा चूहे के साथ पिंजरे में रखा जाए और फिर अकेले पिंजरे में रखा जाए तो उसमें नकारात्मक भावनाओं और डर में कमी आती है.

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह जरूरी नहीं है कि दुर्घटना से जुड़ीं सभी बातें किसी को ठीक से याद हैं या नहीं, जरूरी है घटनाओं से पैदा हुई भावनाएं. उदास व्यक्ति को वह घटना दोबारा याद दिलाई जाती है (घटना से जुड़ीं चीजें दिखाकर या उस जगह पर ले जाकर). घटना से जुड़ी भावनाओं को पहले उत्तेजित (Excited) किया जाता है. उसके बाद घटना की गैरहाजिरी में ये प्रक्रिया बार-बार दोहराने से धीरे- धीरे घटना से जुड़ी नकारात्मक भावनाएं कम होने लगती हैं. मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सक इसे विलोपन पद्धति (Deletion method) कहते हैं.

मिटेगा यादों का नकारात्मक हिस्सा

कुछ अंडरडेवलप्ड न्यूरोहार्मोन्स जो नकारात्मक भावनाओं को कम करते हैं और मूड में बदलाव लाने में समर्थ हैं, मनुष्य के लिए उपयोगी साबित हो सकते हैं. अनेक अनुसंधानों से ये साबित हो चुका है कि स्ट्रेस हॉर्मोन जो किसी दुर्घटना के कारण रिलीज होते हैं, उस स्मृति को मजबूत करने के लिए जिम्मेदार होते हैं. कुछ एंटीडिप्रेशंट्स दवाइयां इन स्ट्रेस हॉर्मोन्स को रिलीज होने से रोकने में सक्षम हैं. ये दवाइयां जीवन की किसी तकलीफदेह घटना की यादों को भावनात्मक रूप से मजबूत होने से रोकती हैं. किसी नई स्मृति को तो इन दवाइयों के जरिए मिटाना मुमकिन है ही, पुरानी यादों को भी इसके जरिए मिटाया जा सकता है.

अगर उस स्मृति को दुबारा एक्टिव किया जाए और उसके बाद ये दवाइयां दी जाए. दिलचस्प बात ये है कि इन दवाइयों के इस्तेमाल से यादों का नकारात्मक हिस्सा ही मिटता है ना कि पूरी यादें, ये दवाइयां फिलहाल मनोरोगियों के इलाज में वरदान साबित हो रहीं हैं.

वैज्ञानिकों को कई प्राणियों में मेमोरी को ट्रांसफर करने, बदलने और डिलीट करने में कामयाबी मिल चुकी है. इंसानी दिमाग में भी मेमोरिज के फोर्मूलेशन पहचान लिए गए हैं. किसी नकारात्मक घटना से जुड़ी यादों को उससे जुड़ी नर्व सेल्स को उत्तेजित कर दवाइयों से मिटाना मुमकिन है. अब ताजी यादों को बदला जा सकता है और ऐसी घटनाओं की यादें दिमाग में बनाना मुमकिन है जो कभी हुई ही नहीं! हालांकि इंसानों में मेमोरी एडिटिंग अभी शुरुआती स्टेज में है लेकिन जो लोग डिप्रेशन, पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर, एंजायटी, अल्जाइमर, डीमेंशिया जैसे मानसिक बीमारियों से पीड़ित हैं उनके लिए एक वरदान से कम नहीं है.

युद्ध के दिल दहला देने वाले अनुभवों से जिंदगी भर परेशान रहने वाले जवानों के लिए मेमोरी एडिटिंग बेहद कारगर साबित हुई है. आज नशे के आदी लोगों का भी इलाज करने के लिए मेमोरी एडिटिंग तकनीकों का सहारा लिया जा रहा है. हमारी जिंदगी में कई यादें इतनी कष्टदायक होती हैं कि उनके साथ जीना बहुत मुश्किल होता है, सबसे बड़ी बात यह है कि उन दुखद स्मृतियों को मिटाना आज संभव है.

बुरी यादों को मिटाते हुए दूसरी यादों पर भी पड़ सकता है असर

कहते हैं ज्ञान दोधारी तलवार की तरह होता है, इसका इस्तेमाल विकास के लिए भी किया जा सकता है और विनाश के लिए भी. ह्यूमन मेमोरी एडिटिंग से जुड़ी नैतिक दुविधाओं पर केंद्रित न्यूरोएथिक्स नामक एक नया कॉन्सेप्ट है. न्यूरोएथिक्स हमारी यादों (जो हमारे अस्तित्व की बुनियाद है) में छेड़छाड़ का विरोध करती है.

मिशिगन यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर मेमोरी एंड ब्रेन के डायरेक्टर हॉवर्ड इशेनबॉम का मानना है कि हमारी मेमोरी में बेहद सीमित ब्रेन सेल्स शामिल होते हैं. ऐसे में किसी एक सेल को नष्ट कर तकलीफदेह यादों को मिटाने से दूसरे सेल्स पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ सकता है. न्यूरोएथिक्स के हिमायती मानते हैं कि हालांकि दर्दनाक यादों को मिटाने की संभावना कुछ लोगों को राहत जरूर दे सकती है, लेकिन मेमोरी एडिटिंग से ये मौलिक रूप से बदल जाएगा कि हम कौन हैं या हम कैसे व्यवहार करते हैं. एक आम डर है कि मेमोरी एडिटिंग तकनीकों का इस्तेमाल लोगों की सेल्फ-आईडेंटिटी को बदलने और उनकी यादों में हेरफेर करने के लिए किया जा सकता है.

हालांकि अक्सर इसे खारिज कर दिया जाता है, जबकि इस तरह की संभावनाएं वास्तविक होती हैं और इन पर निगरानी रखने की जरूरत है, क्योंकि हमारा इतिहास यह बताता है कि हम साइंस-टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल न्यूक्लियर रिएक्टर बनाने के लिए भी कर सकते हैं और न्यूक्लियर बम बनाने के लिए भी! बहरहाल, इस बात पर सभी राजी हैं अगर बुरी और कठोर यादें आपकी जिंदगी तबाह कर रही हैं तो मेमोरी एडिटिंग के साथ समझौता इतना बुरा भी नहीं है.

(प्रदीप एक साइंस ब्लॉगर और विज्ञान लेखक हैं. वे विगत लगभग 7 वर्षों से विज्ञान के विविध विषयों पर देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिख रहे हैं. इनकी एक किताब और तकरीबन 150 लेख प्रकाशित हो चुके हैं)

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