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नया साल शुरू हो रहा है. हर सट्टेबाज और उसकी दादी के मन में घबराहट होगी कि न जाने इस साल क्या होगा. सच तो यही है कि 24 घंटे वाले न्यूज चैनलों के दौर में आज शेयर बाजार का हर पंडित और उनके दादा ब्लूचिप से अधिक राजनीति की बात कर रहे हैं. मुझे इस पर हंसी आती है.
ये ‘एक्सपर्ट्स’ कह रहे हैं कि खुदा न करे, अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आगामी लोकसभा चुनाव में बहुमत गंवा देते हैं, तो वह बाजार में बर्बादी की दस्तक होगी. यह फिजूल की बात है. वे ‘अस्थायी गठबंधन सरकार से सावधान’ रहने की जो हिदायत दे रहे हैं, वह ज्यादती से सिवाय और कुछ नहीं है. दिलचस्प बात यह है कि जब ये लोग बनावटी (या नकल की गई) और घिसी-पिटी राजनीतिक सूझबूझ परोस रहे हैं, तब ग्लोबल मार्केट की तर्ज पर निफ्टी में भारी उतार-चढ़ाव हो रहा है.
बिजनेस टेलीविजन चैनलों पर रोज पांच मिथक परोसे जाते हैं. मैं भोले निवेशकों से अपील करूंगा कि अगर उन्हें अपना पैसा सुरक्षित रखना है, तो वे इन मिथकों के झांसे में न आएं या इन्हें इग्नोर करें.
मैं आपको एक चौंकाने वाली जानकारी देता हूं, जिसका जिक्र कभी नहीं होता है. 1999 के बाद केंद्र और राज्यों में बनी एक पार्टी की सरकार या गठबंधन सरकारों ने अपना कार्यकाल पूरा किया है. है न कमाल की बात! मेच्योर पश्चिमी लोकतांत्रिक देश भी इस मामले में हमसे बेहतर प्रदर्शन नहीं कर सकते.
सच यह भी है कि आजाद भारत ने 70 साल के इतिहास में ‘अस्थायित्व’ के आधा दर्जन साल भी नहीं देखे हैं, जो 1967-69, 1989-91 और 1996-99 के तीन टाइम जोन में सीमित रहा. इस ‘कथित अस्थायित्व’ में कुछ भी असामान्य नहीं है. जैसे-जैसे देश में लोकतंत्र मेच्योर होता गया. इसकी जड़ें गहरी होती गईं और तीन धाराएं सामने आईं:
इसलिए जिसे हल्के-फुल्के अंदाज में ‘अस्थायी गठबंधन’ कहा जाता है, वह एक मजबूत लोकतंत्र के विकास का चरण है.
देश में मिली-जुली/कल्याणकारी अर्थव्यवस्था है, जिसमें निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ रही है. इस इकनॉमिक मॉडल पर राजनीतिक दलों में आम सहमति है. कांग्रेस जहां नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह के 15 साल के कार्यकाल में आर्थिक उदारवाद के प्रति कमिटमेंट साबित कर चुकी है, बीजेपी ने वाजपेयी और मोदी के कार्यकाल में ऐसा किया है. (वैसे मैं कहता रहा हूं कि इन चारों प्रधानमंत्रियों में मोदी ने कहीं अधिक दखलंदाजी की है. उनके कार्यकाल में मैक्सिमम गवर्नेंस, राष्ट्रीकृत संस्थाएं पर जोर और प्राइस कंट्रोल कहीं ज्यादा रहा है.)
मुझे तो लगता है कि केंद्र में अगर ऐसी सरकार बनती है,जिसमें क्षेत्रीय दलों की मजबूत आवाज हो तो उसका नए प्रयोगों को लेकर कहीं खुला नजरिया होगा (आप जीएसटी काउंसिल को देख सकते हैं, जिसमें अलग-अलग सरकारों का प्रतिनिधित्व है).
राजनीतिक तौर पर भी हमें गठबंधन सरकारों से घबराना नहीं चाहिए, क्योंकि भारत असल में अलग-अलग भाषाओं, धर्मों, जातियों का गठजोड़ है. इसलिए इसकी नुमाइंदगी करने वाली कोई सरकार बनती है, तो वह 30 पहियों वाले रथ की तरह मजबूत होगी.
यह एक और मिथक है, जिसे गोदी टेलीविजन चैनल रोज दोहराते हैं. मायावती या ममता बनर्जी अगर कांग्रेस या राहुल गांधी की मामूली आलोचना भी करती हैं, तो ये चैनल ‘माया ने महागठबंधन से किनारा किया’, ‘बेमेल गठबंधन’ जैसी हेडलाइंस चलाने लगते हैं. इस प्रोपगैंडा की पोल कुछ तथ्यों पर नजर डालने से खुल जाती है:
मैं तो कहता हूं कि यूपी या पश्चिम बंगाल या ओडिशा में महागठबंधन नहीं बनाना कांग्रेस के लिए फायदेमंद होगा. उसका कोर वोट बैंक बीजेपी से (यूपी में ब्राह्मण और ठाकुर) ओवरलैप करता है, इसलिए वहां समझदारी से चुना गया कैंडिडेट (जो मुस्लिम या दलित वोटों का बंटवारा न करे, बल्कि ब्राह्मण और ठाकुर वोटों में सेंध लगाए) असल में बीजेपी को नुकसान पहुंचा सकता है. इससे अखिलेश यादव, मायावती, ममता बनर्जी या नवीन पटनायक को फायदा होगा.
इस मिथक से तो मार्केट वालों की सांस ही अटक जाती है. फिक्र मत करिए, यह सरासर झूठ है. आइए,अलग-अलग क्षेत्रीय दलों को एक जगह फिट करके देखते हैं:
मैं शेयर बाजार में निवेश करने वालों के मन की बात समझ रहा हूं: ‘अब वो कहेंगे, चलिए आपका ज्ञान तो सुन लिया, लेकिन यह बताइए कि हमें बाजार में खरीदारी करनी चाहिए या बिकवाली?’
अगर कांग्रेस को 125 और बीजेपी को 175 सीटें मिलीं, तो इससे आपकी निवेश योजना प्रभावित नहीं होनी चाहिए. आप बेफिक्र रहिए और खुश रहिए. हर शेयर का विश्लेषण करके तय करिए कि वह खरीदे जाने लायक है या नहीं. मेरी मानिए तो 2019 में बाजार की चाल पर राजनीति का बहुत कम असर होगा.
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