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कांग्रेस, गठबंधन और 2019 चुनाव से जुड़े ये 5 मिथ, जिसे इग्नोर करें

टेलीविजन चैनलों पर रोज ये पांच मिथक परोसे जाते हैं, मेरा ये मानना है कि इसे इग्नोर किया जाना चाहिए

राघव बहल
वीडियो
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राजनीति और गठबंधन से जुड़े ये 5 मिथ, जिसे इग्नोर करें
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राजनीति और गठबंधन से जुड़े ये 5 मिथ, जिसे इग्नोर करें
(फोटो: द क्विंट)

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  • वीडियो एडिटर: मोहम्मद इब्राहिम और पूर्णेंदु प्रीतम
  • वीडियो प्रोड्यूसर: अभय कुमार सिंह, अनुभव मिश्रा
  • कैमरापर्सन: शिवकुमार मौर्य

नया साल शुरू हो रहा है. हर सट्टेबाज और उसकी दादी के मन में घबराहट होगी कि न जाने इस साल क्या होगा. सच तो यही है कि 24 घंटे वाले न्यूज चैनलों के दौर में आज शेयर बाजार का हर पंडित और उनके दादा ब्लूचिप से अधिक राजनीति की बात कर रहे हैं. मुझे इस पर हंसी आती है.

ये ‘एक्सपर्ट्स’ कह रहे हैं कि खुदा न करे, अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आगामी लोकसभा चुनाव में बहुमत गंवा देते हैं, तो वह बाजार में बर्बादी की दस्तक होगी. यह फिजूल की बात है. वे ‘अस्थायी गठबंधन सरकार से सावधान’ रहने की जो हिदायत दे रहे हैं, वह ज्यादती से सिवाय और कुछ नहीं है. दिलचस्प बात यह है कि जब ये लोग बनावटी (या नकल की गई) और घिसी-पिटी राजनीतिक सूझबूझ परोस रहे हैं, तब ग्लोबल मार्केट की तर्ज पर निफ्टी में भारी उतार-चढ़ाव हो रहा है.

मुझे लगता है कि इन एक्सपर्ट्स को खुद को प्राइस/अर्निंग मल्टीपल्स और पुट/कॉल/ऑप्शंस तक सीमित रखना चाहिए. वे राजनीति के बारे में कुछ नहीं जानते. इसलिए जब वे इस पर टीका-टिप्पणी करते हैं तोउनकी ‘नादानी’, राष्ट्रीय शर्म में बदल जाती है.

बिजनेस टेलीविजन चैनलों पर रोज पांच मिथक परोसे जाते हैं. मैं भोले निवेशकों से अपील करूंगा कि अगर उन्हें अपना पैसा सुरक्षित रखना है, तो वे इन मिथकों के झांसे में न आएं या इन्हें इग्नोर करें.

पहला (और काफी समय से चला आ रहा) मिथक: 2019 में एक ‘अस्थायी गठबंधन’ बनेगा

मैं आपको एक चौंकाने वाली जानकारी देता हूं, जिसका जिक्र कभी नहीं होता है. 1999 के बाद केंद्र और राज्यों में बनी एक पार्टी की सरकार या गठबंधन सरकारों ने अपना कार्यकाल पूरा किया है. है न कमाल की बात! मेच्योर पश्चिमी लोकतांत्रिक देश भी इस मामले में हमसे बेहतर प्रदर्शन नहीं कर सकते.

सच यह भी है कि आजाद भारत ने 70 साल के इतिहास में ‘अस्थायित्व’ के आधा दर्जन साल भी नहीं देखे हैं, जो 1967-69, 1989-91 और 1996-99 के तीन टाइम जोन में सीमित रहा. इस ‘कथित अस्थायित्व’ में कुछ भी असामान्य नहीं है. जैसे-जैसे देश में लोकतंत्र मेच्योर होता गया. इसकी जड़ें गहरी होती गईं और तीन धाराएं सामने आईं:

  • पहली धारा की नुमाइंदगी इंडियन नेशनल कांग्रेस करती है. आजादी के बाद उसका दबदबा था, जिसमें समय के साथ कमी आई. पार्टी का वोट 40 पर्सेंट से अधिक था, जो घटकर 30 पर्सेंट के करीब आ गया.
  • एक राष्ट्रव्यापी विपक्ष की आवाज (जो आखिरकार पार्टियों में बदली) बीजेपी और पुरानी समाजवादी (या जनता पार्टी) के घटकों से बनी. इसका वोट शेयर एकल अंकों से बढ़कर आज 30 पर्सेंट के करीब पहुंचा है.
  • कई क्षेत्रीय दलों का उभार हो रहा है, जो अलग भाषाओं या जाति या समुदाय की नुमाइंदगी कर रही हैं. इन पार्टियों का वोट शेयर 30-35 पर्सेंट के बीच है. इसमें से हर पार्टी के पास 2-5 पर्सेंट वोट हैं. भारत में कमाल की विविधता है. ऐसे में सामाजिक समूहों का सत्ता पर यह दावा अच्छे लोकतंत्र की निशानी है.

इसलिए जिसे हल्के-फुल्के अंदाज में ‘अस्थायी गठबंधन’ कहा जाता है, वह एक मजबूत लोकतंत्र के विकास का चरण है.

मैं अपने अजीज बिजनेस एक्सपर्ट्स से कहना चाहता हूं कि आप एक ही सांस में ‘भारत’ और ‘राजनीतिक अस्थिरता’ शब्द का प्रयोग न करें. यह बेवकूफी है. अगर आप ऐसी थ्योरी पेश करेंगे तो वह देश की मौजूदा राजनीति के साथ इंसाफ नहीं होगा.
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दूसरा मिथक: गैर-मोदी सरकार आई तो देश के ‘इकनॉमिक मॉडल’ की ‘अस्मिता’ छिन जाएगी

देश में मिली-जुली/कल्याणकारी अर्थव्यवस्था है, जिसमें निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ रही है. इस इकनॉमिक मॉडल पर राजनीतिक दलों में आम सहमति है. कांग्रेस जहां नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह के 15 साल के कार्यकाल में आर्थिक उदारवाद के प्रति कमिटमेंट साबित कर चुकी है, बीजेपी ने वाजपेयी और मोदी के कार्यकाल में ऐसा किया है. (वैसे मैं कहता रहा हूं कि इन चारों प्रधानमंत्रियों में मोदी ने कहीं अधिक दखलंदाजी की है. उनके कार्यकाल में मैक्सिमम गवर्नेंस, राष्ट्रीकृत संस्थाएं पर जोर और प्राइस कंट्रोल कहीं ज्यादा रहा है.)

सच यह भी है कि एचडी देवगौड़ा, चंद्रबाबू नायडू से लेकर नवीन पटनायक सहित अन्य क्षेत्रीय नेता आर्थिक सुधारों के कहीं ज्यादा हिमायती रहे हैं. इसलिए उनकी सरकारों के दौरान ‘आर्थिक सुधारों के रुकने’ का इल्जाम लगाना बंद कर दीजिए.

मुझे तो लगता है कि केंद्र में अगर ऐसी सरकार बनती है,जिसमें क्षेत्रीय दलों की मजबूत आवाज हो तो उसका नए प्रयोगों को लेकर कहीं खुला नजरिया होगा (आप जीएसटी काउंसिल को देख सकते हैं, जिसमें अलग-अलग सरकारों का प्रतिनिधित्व है).

राजनीतिक तौर पर भी हमें गठबंधन सरकारों से घबराना नहीं चाहिए, क्योंकि भारत असल में अलग-अलग भाषाओं, धर्मों, जातियों का गठजोड़ है. इसलिए इसकी नुमाइंदगी करने वाली कोई सरकार बनती है, तो वह 30 पहियों वाले रथ की तरह मजबूत होगी.

तीसरा मिथक: अगर कांग्रेस महागठबंधन नहीं बना पाती है, तो इसका मतलब है कि वह फेल हो गई है

यह एक और मिथक है, जिसे गोदी टेलीविजन चैनल रोज दोहराते हैं. मायावती या ममता बनर्जी अगर कांग्रेस या राहुल गांधी की मामूली आलोचना भी करती हैं, तो ये चैनल ‘माया ने महागठबंधन से किनारा किया’, ‘बेमेल गठबंधन’ जैसी हेडलाइंस चलाने लगते हैं. इस प्रोपगैंडा की पोल कुछ तथ्यों पर नजर डालने से खुल जाती है:

  • देश के 75 पर्सेंट हिस्सों में- उत्तर, पश्चिम, मध्य और दक्षिण व पूर्वोत्तर भारत - बीजेपी और कांग्रेस की अगुवाई में बने अलायंस के बीच सीधा मुकाबला है, यानी तीन-चौथाई लोकसभा सीटों पर पहले से ही गठबंधन है! इसके कुछ अपवाद भी हैं.
  • इनमें उत्तर प्रदेश (यहां दो क्षेत्रीय दलों का बीजेपी से मुकाबला है),पश्चिम बंगाल (यहां एक क्षेत्रीय दल के मुकाबले दो राष्ट्रीय पार्टियां हैं) और ओडिशा (एक क्षेत्रीय पार्टी को दो राष्ट्रीय दल चुनौती दे रहे हैं) शामिल हैं. इन राज्यों में राजनीति दो धड़ों में बंटी हुई नहीं है. यहां एक तीसरी पार्टी भी है, जिसके बारे में यह पता नहीं है कि वह नेशनल लेवल पर किसके साथ जाएगी.

चौथा मिथक: सारे विपक्षी दल एकजुट होने के बाद ही मोदी को हरा पाएंगे

मैं तो कहता हूं कि यूपी या पश्चिम बंगाल या ओडिशा में महागठबंधन नहीं बनाना कांग्रेस के लिए फायदेमंद होगा. उसका कोर वोट बैंक बीजेपी से (यूपी में ब्राह्मण और ठाकुर) ओवरलैप करता है, इसलिए वहां समझदारी से चुना गया कैंडिडेट (जो मुस्लिम या दलित वोटों का बंटवारा न करे, बल्कि ब्राह्मण और ठाकुर वोटों में सेंध लगाए) असल में बीजेपी को नुकसान पहुंचा सकता है. इससे अखिलेश यादव, मायावती, ममता बनर्जी या नवीन पटनायक को फायदा होगा.

जरा सोचिए, जिसे टीवी चैनल चीख-चीखकर ‘महागठबंधन की असफलता’ बता रहे हैं, वह मोदी को हराने के लिए एक चालाक चाल हो सकती है.

पांचवां मिथक: बिना कांग्रेस या बीजेपी के तीसरा मोर्चा

इस मिथक से तो मार्केट वालों की सांस ही अटक जाती है. फिक्र मत करिए, यह सरासर झूठ है. आइए,अलग-अलग क्षेत्रीय दलों को एक जगह फिट करके देखते हैं:

  • कुछ ऐसी पार्टियां हैं, जो बीजेपी के साथ कभी हाथ नहीं मिला सकतीं, इसका मतलब यह है कि उनके पास सिर्फ कांग्रेस के साथ जाने का विकल्प है. इनमें आरजेडी (बिहार), एसपी (यूपी), लेफ्ट और शायद एनसीपी(महाराष्ट्र) शामिल हैं.
  • कुछ ऐसी पार्टियां हैं, जो सिर्फ बीजेपी के साथ ही जाएंगी. इनमें अकाली दल (पंजाब) और टीआरएस(तेलंगाना) शामिल हैं.
  • इसके बाद कुछ ऐसी क्षेत्रीय पार्टियां हैं, जो बीजेपी या कांग्रेस किसी के साथ जा सकती हैं, लेकिन इनका झुकाव बीजेपी या कांग्रेस की तरफ है: इनमें टीएमसी, टीडीपी, जेएमएम, एनसी, पीडीपी का झुकाव कांग्रेस की तरफ और वाईएसआर, बीजेडी और बीएसपी दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों में से किसी के साथ जा सकती हैं, वैसे वे ऐसा अलायंस पसंद करेंगी, जहां उनकी आवाज सुनी जाए.

अब बताइए, मुझे शेयर खरीदने चाहिए या बिकवाली करनी चाहिए?

मैं शेयर बाजार में निवेश करने वालों के मन की बात समझ रहा हूं: ‘अब वो कहेंगे, चलिए आपका ज्ञान तो सुन लिया, लेकिन यह बताइए कि हमें बाजार में खरीदारी करनी चाहिए या बिकवाली?’

अगर कांग्रेस को 125 और बीजेपी को 175 सीटें मिलीं, तो इससे आपकी निवेश योजना प्रभावित नहीं होनी चाहिए. आप बेफिक्र रहिए और खुश रहिए. हर शेयर का विश्लेषण करके तय करिए कि वह खरीदे जाने लायक है या नहीं. मेरी मानिए तो 2019 में बाजार की चाल पर राजनीति का बहुत कम असर होगा.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

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