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जहां संगम पर नदियां एक दूसरे से हर रोज गले मिलती हों, जहां तहजीबें गुत्थमगुत्था हों, जहां अकबर इलाहाबादी किसी तबके का नहीं एक शहर का महबूब शायर रहा हो. वहां इलाहाबाद को प्रयागराज बनाकर आखिर क्या संदेश देना चाहती है योगी सरकार?या कहीं एक बार फिर, एक शहर के 12 लाख से ज्यादा बाशिंदों को चुनावी प्रयोगशाला मतलब लेबोरेटरी की टेस्ट-ट्यूब में डालकर कोई बड़ा खेल तो नहीं खेला जा रहा... लगता तो यही है.
घर से दफ्तर तक, बस से पंडाल तक मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कल तक रंग बदलने में व्यस्त थे, आज नाम बदलने में मसरूफ हैं.
चुनाव सिर पर हैं. अक्सर जब चुनाव सिर पर होते हैं तो तर्क यानी लॉजिक पैरों में पड़ा होता है. तर्कों के नए तीर, आस्था की आंधी पर सवार होकर यहां, वहां हर तरफ भेज दिए जाते हैं. जिनका काम हमको, आपको ये साबित करना होता है कि नाम बदलना सरकारी काम नहीं बल्कि हमारा, आपका यानी जनभावना का सम्मान है. मतलब पब्लिक सेंटीमेंट नाम की भी तो कोई चीज है..
जनभावना? बड़ा विचित्र शब्द है. शायद, सियासत की दुनिया का सबसे लचीला मैटेरियल. जैसे चाहो, इस्तेमाल करो. न टूटता है, न मिटता है.
चलिए आपको कुछ कड़वे सच से रूबरू कराते हैं..
शक तो तब भी हुआ था जब कुछ महीने पहले पूरे तामझाम के साथ मुगलसराय स्टेशन का नाम बदलकर दीन दयाल उपाध्याय जंक्शन किया गया. लगा कि कहीं कोई सिलसिला न बन जाए. अब वो शक, हकीकत बनकर सामने खड़ा है.
हो सके तो इस पूरे खेल को समझिए, इससे बचिए, इसका विरोध करिए. क्योंकि एक शहर सिर्फ नाम नहीं होता. वो पहचान होता है, याद होता है और इलाहाबाद तो गंगा-जमुनी तहजीब के सबसे मजबूत दस्तखतों में से एक है.
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Published: 17 Oct 2018,08:56 PM IST