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अयोध्या विवाद के पीछे की पूरी कहानी एक साथ यहां जानिए...

बाबरी मस्जिद बनने से ढहने तक की पूरी कहानी

अविरल विर्क
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अयोध्या विवाद ने कई दशकों तक देश की राजनीति को प्रभावित किया
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अयोध्या विवाद ने कई दशकों तक देश की राजनीति को प्रभावित किया
(फोटो: Altered by The Quint)

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(ये कॉपी पहली बार 6 दिसंबर 2017 को पब्लिश हुई थी. अयोध्या विवाद पर नतीजों के बाद ये स्टोरी दोबारा पब्लिश की जा रही है.)

अयोध्या विवाद ने कई दशकों तक देश की राजनीति को प्रभावित किया है, लेकिन ये विवाद एक दिन में पैदा नहीं हुआ था. आखिर क्या हुआ था बाबरी विध्वंस से पहले?

द क्विंट की पड़ताल में हम आपको सिलसिलेवार तरीके से उस घटनाक्रम से रूबरू कराएंगे जो आजादी के बाद के सालों में अयोध्या विवाद का मूल कारण बनी.

दावा किया जाता है कि बाबर के सेनापति मीर बाकी ने उसके सम्मान में बाबरी मस्जिद बनाई थी. कुछ हिंदुओं का मानना है कि बाबरी मस्जिद के निर्माण के लिए उसने एक मंदिर तोड़ा था और ये कोई आम मंदिर नहीं बल्कि राम जन्म भूमि पर बना मंदिर था.

दिव्य वानर ने खुलवाया बाबरी मस्जिद का ताला?

साल 1986. फैजाबाद जिला न्यायालय. जज के.एम. पांडे ने एक बंदर को एक झंडा थामे देखा. लोग बंदर को मूंगफली और फल दे रहे थे. जज पांडे ने सोचा कि ये अजीब बात है कि बंदर इन्हें खाने से मना कर रहा है. इसके बाद वो अपने चैंबर में गए जहां उन्हें बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने की याचिका पर सुनवाई करनी थी. केंद्र और राज्य की कांग्रेस सरकार के दो अफसरों ने कोर्ट को कहा कि अगर बाबरी मस्जिद के ताले खोल दिए जाएंगे तो कानून व्यवस्था नहीं बिगड़ेगी.

बाबरी विध्वंस के 25 साल पूरे(फोटो: Altered by The Quint)


ये अजीब था. हिंदुओं को उस मस्जिद में घुसने की इजाजत मिलने से मुस्लिम समुदाय नाराज हो सकता था, क्योंकि इससे तीन दशक पहले पंडित अभिराम दास और बाकी लोग इसे
अपवित्र कर चुके थे.

जज पांडे ने अपने फैसले में कहा कि अगर हिंदू श्रद्धालुओं को परिसर के अंदर रखी मूर्तियों को देखने और पूजने की इजाजत दी जाती है तो इससे मुस्लिम समुदाय को ठेस नहीं पहुंचेगी, और न ही इससे आसमान टूट पड़ेगा.

लेकिन, आसमान वाकई टूट पड़ा. दिल्ली, मेरठ, हाशिमपुरा, मुरादनगर और मलियाना समेत पूरे देश में दंगे भड़क गए. बाबरी मस्जिद के ताले खुलवाने के विरोध में कश्मीर के अनंतनाग में भी कई मंदिरों में तोडफोड़ की गई.

दरअसल ये दंगे जज केएम पांडे के फैसले का ही नतीजा थे जिसका जिक्र उन्होने अपनी आत्मकथा में किया था. उनके मुताबिक उनका ये फैसला एक दिव्य बंदर से प्रेरित था.. “मैने उसे सलाम किया और सोचा कि वो एक दिव्य शक्ति है.” 1980 के बीतते-बीतते देश की जनता और राजनेताओं के लिए अयोध्या आंदोलन को नजरअंदाज करना नामुमकिन हो गया.

राम मंदिर का राजनीतिकरण

जहां एक तरफ वीएचपी अपने अयोध्या मिशन को लेकर दिल्ली पहुंची तो वहीं दूसरी तरफ मुस्लिम धर्मगुरु इसके विरोध में सड़कों पर उतर गए.

इसी बीच 62 साल की शाह बानो सुप्रीम कोर्ट में गुजारे भत्ते के अधिकार का केस जीत गईं. मुस्लिम धर्म गुरुओं के मुताबिक ये फैसला उनके शरिया कानून के खिलाफ था. हालांकि राजीव गांधी ने मुस्लिम समुदाय को खुश करने की गरज से सुप्रीम कोर्ट के फैसले को नजरअंदाज करते हुए शाहबानो केस के फैसले पर एक नया कानून बनाया.

भारतीय जनता पार्टी उस वक्त भारत की राजनीति में एक विपक्ष के तौर पर उभरने की कोशिश कर रही थी. बीजेपी ने राजीव गांधी पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाया. इससे हिन्दुओं का एक बडा हिस्सा मुस्लिम धर्मगुरुओं पर भड़क उठा. राजीव गांधी ने हिन्दुओं को शांत करने और खुद पर लगे मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोपों का जवाब देने की ठानी.

जब राजीव सरकार के सामने खड़ा हुआ बड़ा संकट(फोटो: Altered by The Quint)
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शिलान्‍यास के पीछे सियासी फायदे की मंशा

फरवरी 1989 में, वीएचपी ने घोषणा की वो राम मंदिर का शिलान्यास करेंगे. जैसे ही उन्होंने ये ऐलान किया दुनिया भर से चंदा मिलने लगा. इसके बाद विश्व हिन्दू परिषद ने राम मंदिर मुद्दे पर भारत के गांवों में अपने आंदोलन के लिए समर्थन जुटाना शुरु कर दिया.

हाईकोर्ट का आदेश था कि विवादित जमीन पर कोई निर्माण न हो. लेकिन वीएचपी कोर्ट के आदेश की धज्जियां उड़ाने को तैयार हो चुकी थी. नतीजा ये हुआ कि देश का माहौल बिगड़ने लगा. सरकार को दखल देना पड़ा और पीएम राजीव गांधी ने गृहमंत्री बूटा सिंह को अयोध्या भेजा ताकि वीएचपी को शांत किया जा सके.

अब तक कांग्रेस शिलान्यास के पक्ष में पूरी तरह नहीं दिख रही ती. 8 नवंबर 1989 को, प्रस्तावित शिलान्यास से दो दिन पहले, राज्य के अटॉर्नी जनरल ने कहा कि हाईकोर्ट के आदेश को शिलान्यास की इजाजत देने वाला माना जा सकता है. हालांकि, ये बहस का विषय था. फिर भी कांग्रेस अचानक शिलान्यास के पक्ष में खड़ी हो गई. रुख के इस बदलाव में, आने वाले चुनावों का भी एक रोल था.

विध्वंस का दिन

मई 1991 में राजीव गांधी की हत्या कर दी गई गई. दो महीने बाद ही, कांग्रेस सत्ता में आई और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे नरसिम्हा राव. 1990 में कारसेवकों पर फायरिंग की घटना के बाद, मुलायम सिंह सरकार सत्ता से बाहर हो चुकी थी.

राममंदिर निर्माण के वादे के साथ यूपी में बीजेपी की सरकार बनी. कल्याण सिंह बने मुख्यमंत्री. उत्तर प्रदेश सरकार ने 2.77 एकड़ की विवादित जमीन कब्जे में ली और कोर्ट के आदेश के बावजूद, 1991 और 92 में करीब-करीब पूरे साल कारसेवा की इजाजत दे दी गई.

30 अक्तूबर 1992 को वीएचपी ने एक धर्मसंसद का आयोजन किया जिसमें कारसेवकों से 6 दिसंबर को अयोध्या में इकट्ठा होने का आह्वान किया गया.कार्यक्रम के मुताबिक, कारसेवा सुबह 11 बजे शुरू होनी थी. योजना सरयू नदी का पानी और रेत लेकर, विवादित स्थल के पास बने ढांचे को साफ करने की थी.

दोपहर 12 बजे के आसपास, एक तेज और लंबी सीटी सुनाई दी. अभी, साधु-संत, ढांचे को साफ ही कर रहे थे कि युवा कारसेवक तेज कदमों से सीटी की आवाज की दिशा में दौड़ पड़े. उन्होंने कंटीला तार हटा दिया, रस्सियों से विवादित ढांचे पर चढ़ गए और हथौड़ों से पूरे ढांचे को गिरा दिया.

ये भी पढ़ें- बाबरी विध्वंस Exclusive: कैमरे में कैद रिहर्सल की हैरतअंगेज कहानी

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Published: 06 Dec 2017,10:26 AM IST

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