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वीडियो एडिटर: पुर्णेन्दु प्रीतम
वीडियो प्रोड्यूसर: मौसमी सिंह
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में 2019 का आम चुनाव सबसे महंगा चुनाव है. इन चुनावों के दौरान अप्रैल, मई और जून यानी सिर्फ तीन महीनों में 50 हजार करोड़ एक्स्ट्रा सर्क्यूलेशन में आएंगे. रिजर्व बैंक के मुताबिक फरवरी-मार्च में ही लोगों के पास 17 फीसदी ज्यादा करेंसी आ चुकी है.
साफ सुथरे तरीके से तो इन चुनावों का खर्च है महज 5860 करोड़ रुपये लेकिन सीएमएस की स्टडी के मुताबिक असली खर्च 50 हजार करोड़ से भी ज्यादा है. और इसका 90 फीसदी ब्लैक मनी के तौर पर आना है. ये पैसा कहां से आता है, कोई अता-पता नहीं है, लेकिन कहां और कैसे खर्च होता है, हम आपको आगे बताएंगे.
वैसे तो नियम के मुताबिक एक उम्मीदवार 70 लाख से ज्यादा खर्च नहीं कर सकता लेकिन अगर किसी एक सीट पर एक उम्मीदवार के खर्चों का हिसाब लगाएं तो पता लग जाएगा कि 70 लाख में कुछ नहीं होता. असली खर्च 50 हजार करोड़ से भी ज्यादा है. समझते के लिए एक सीट पर सिर्फ एक उम्मीदवार के खर्च का खाका खींचते हैं जो वीआईपी नहीं है.
बहुत कंजर्वेटिव भी हो जाएं तो एक सीट पर एक बड़े नेता की एक रैली तो होती ही है. इस पर भीड़ को लाने, मंच सजाने और बंदोबस्त में कम से कम 1 करोड़ लग जाते हैं.10-20 छोटी सभाएं भी हो जाएं तो 1 करोड़ खर्च होगा.
एक उम्मीदवार के लिए प्रचार करने अगर तीन बड़े नेता हेलिकॉप्टर से आते हैं तो इसी का खर्च 1 करोड़ हो जाएगा. क्योंकि एक हेलिकॉप्टर का प्रति घंटा खर्च 4-5 लाख रुपये है. एक रैली के लिए 8 घंटे भी मानें तो ये रकम होती है 40 लाख. तीन रैलियों के लिए 1 करोड़ बीस लाख . लेकिन हम 1 करोड़ ही मानते हैं.
एक सीट पर 100 गाड़ियों को 15 दिन चुनाव प्रचार और कार्यकर्ताओं के लिए हिसाब लगाएं तो 3000 रुपये प्रति गाड़ी के हिसाब से ये रकम 25 लाख बैठती है.
चुनाव जीतना है तो कार्यकर्ताओं को जमीन पर उतारना होगा. जितने ज्यादा हों उतना अच्छा. तो इस उम्मीदवार को 150 कार्यकर्ता ही देते हैं. अगर एक कार्यकर्ता पर प्रति दिन 2000 रुपये का खर्च भी मानें तो एक दिन का खर्च 3 लाख हुआ. यानी पंद्रह दिन का खर्च करीब 50 लाख.
जेनिथ इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि इस बार सोशल मीडिया पर चुनाव प्रचार के खर्च में 19 गुना का इजाफा हुआ है. चुनावी ऐड पर 2600 करोड़ खर्च होने का अनुमान है. यानी एक सीट के लिए करीब साढ़े चार करोड़ और तीन उम्मीदवारों मेें इसे बांटे तो 1.5 करोड़ होगा.
औसतन एक सीट पर 1000 बूथ भी मान लें और तीन से चार कार्यकर्ता भी लगाने पडे़ तो उनका मेहनताना, खाना, और आने का खर्च कम से कम 10 हजार होगा. यानी इसका खर्चा हुआ 1 करोड़ रुपये.
एडीआर की रिपोर्ट बताती है कि 42% वोटरों को कैश या गिफ्ट के तौर पर रिश्वत दी जाती है. रकम होती है करीब 4000 रुपए तक.
एक सीट पर औसतन 15 लाख वोटर होते हैं, इनमें से सिर्फ 10% को भी वोट के बदले नोट दें तो 1.5 लाख लोग हुए. इससे नीचे भी जाते हैं और मानते हैं कि एक वोटर को नोट देकर उसके परिवार के दो और सदस्यों का वोट मैनेज होता होगा तो भी 50 हजार लोगों को कैश देना है. और 4 हजार के बजाय 2000 हजार भी देना है तो ये खर्च हुआ 10 करोड़. इन सारे खर्चों को मिला दें तो हुआ 16 करोड़.
एक सीट पर 3 मुख्य उम्मीदवार भी मानें तो 16 को तीन से गुना कर दीजिए. ये हो गए 48 करोड़... राउंड फिगर 50 करोड़ मानते हैं.
543 सीटों पर अगर 50 करोड़ भी खर्च होते हैं तो आंकड़ा 27 हजार करोड़ रुपये होगा.
ये किसी आम सीट का खाका है, सीट वीआईपी और राज्य आंध्र या महाराष्ट्र जैसा हुआ तो खर्च बढ़ भी सकता है, और यही आकड़ा सौ करोड़ तक पहुंच सकता है. तो कोई ताज्जुब नहीं कि स्टडी और अनुमान बता रहे हैं कि इस बार खर्च 50 हजार करोड़ से ज्यादा होगा.
इतना पैसा वाकई में खर्च होता है इसका एक सबूत ये है कि इस बार आचार संहिता लागू होने से अब तक चुनाव आयोग करीब 2000 करोड़ के बराबर कैश, सोना, शराब और सामान जब्त कर चुका है. जाहिर सी बात है कि चुनावी बाजार में फैले पैसे का बेहद मामूली हिस्सा पकड़ा गया होगा.
और ये खर्च तो उम्मीदवार या पार्टी का हुआ. अभी सरकारी खर्च नहीं जोड़ा गया है. 2014 के चुनावों में 3870 करोड़ खर्च हुए. पांच साल में हर चीज महंगी हुई है तो इस बार कम से कम 5000 करोड़ तो खर्च होगा ही.
पार्टियों के पास पैसा जुटाने के काले सफेद सारे तरीके मौजूद हैं.पहले 20,000 से ज्यादा चंदा देने वालों के बारे में बताना होता था, इलेक्टोरल बॉन्ड आने के बाद अब कोई भी कितना भी चंदा दे सकता है. पार्टियों को डोनर के बारे में बताने की भी जरूरत नहीं है. इलेक्टोरल बॉन्ड में गुमनाम रहकर चुनावी चंदा देने की गुंजाइश है तो पारदर्शिता आएगी कैसे?
क्विंट की पड़ताल बताती है कि सिर्फ एक है जिसको बॉन्ड खरीदने वालों के बारे में पता चल सकता है और वो है सरकार. बेनामी कंपनियों के जरिए भी चंदा लेना आसान हो गया है. 2018 में फॉरेन कंट्रिब्यूशन रेगुलेशन एक्ट 2010 यानी FCRA एक्ट में संशोधन कर विदेशों से आ रहे चुनावी चंदे को जांच के दायरे से बाहर कर दिया गया. ये बड़ा दिलचस्प है. दरअसल 2014 में दिल्ली हाईकोर्ट ने पाया कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों ने, विदेशों से चंदा लेने के मामले में fcra एक्ट और जनप्रतनिधित्व कानून का उल्लंघन किया है. कोर्ट ने चुनाव आयोग को इन दोनों के खिलाफ एक्शन लेने के निर्देश भी दिए.
जवाब में सरकार ने ये किया कि इस कानून को ही बदल दिया. खास बात ये थी कि इस संशोधन को पीछे जाकर 1976 से ही लागू कर दिया गया. यानी पुराने मामलों की भी जांच नहीं हो सकती. साथ ही कंपनी लॉ में बदलाव कर सरकार ने भारत में रिजस्टर किसी विदेशी कंपनी से चुनावी चंदा लेने की मंजूरी दे दी. यानी चुनाव में बेनामी कंपनियों और काले धन को बेरोकटोक डालने का पूरा इंतजाम कर दिया गया है.
और इन सबके बीच एक सच ये भी है कि तमाम रिपोर्ट्स ये बता रही हैं कि सियासी दलों के मिलने वाले कुल चंदे का 90 फीसदी सत्तारूढ़ बीजेपी को मिल रहा है.
सियासी पार्टियां RTI के तहत नहीं आतीं. सूचना का अधिकार पार्टियों के मामले में बेकार हो जाता है. तो कुल मिलाकर बात ये है कि लोकतंत्र के नाम पर सबसे बड़ा पाखंड हम झेल रहे हैं. मनी पावर से मैंडेट दूषित हो रहा है. तो जब तक चुनावी चंदे को पूरी तरह पारदर्शी नहीं बनाया जाता, तब तक ये सब चलता रहेगा. दूसरा कहने को तो चुनाव आयोग ऑटोनॉमस बॉडी है लेकिन आयुक्तों की नियुक्ति भी सरकार ही करती है. तो कोई सवाल न उठे इसलिए क्या आयुक्तों की नियुक्ति के लिए पीएम, सुप्रीम कोर्ट के जज और विपक्ष से एक नेता को लेकर कोई पैनल नहीं बनाया जा सकता?
सोचना चाहिए. अगर ये सब नहीं होगा तो नेता हर चुनावी रैली में, हर मंच से भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार चिल्लाते रहें, असलियत ये है कि भ्रष्टाचार की गंगोत्री मौजूदा चुनाव प्रणाली ही है.
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