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वीडियो एडिटर: कनिष्क दांगी
देश का हर चुनाव अहम होता है लेकिन बिहार चुनाव कुछ गंभीर बातों की वजह से काफी अहम हो जाता है. आज के ब्रेकिंग व्यूज में इसी को समझने की कोशिश करते हैं. सबसे बड़ी बात कि कोरोना वायरस के इस दौर में चुनाव हो रहे हैं तो अब ये देखना होता है कि चुनाव किस हद तक साफ-सुथरे तरीके से होते हैं, टर्नआउट कितना होता है. जनमत बेहतर से बेहतर आ पाता है या नहीं. ये भी देखना बेहद अहम होगा कि तीन बार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए ये चुनाव कैसा रहता है. क्योंकि तीन बार की एंटी-इनकंबेंसी है, जाहिर है कि उनके लिए स्थिति वैसी नहीं है जैसा 2005 के चुनाव के वक्त थी. उत्तर भारत में चौथा जनमत किसी को जल्दी मिलता नहीं है तो ये एक बड़ी बात होगी कि उन्हें जनादेश मिलता है और बीजेपी के साथ वो सरकार बना पाते हैं.
नीतीश कुमार की खासियत ये है कि वो दो सामाजिक शक्तियों से लगातार या तो मुकाबला करते रहे हैं या उसे हैंडल करते रहे हैं. ऐसे में नीतीश कुमार ने अपने लिए एक ऐसा सामाजिक इंद्रधनुष तैयार किया है जिसमें अति पिछड़े, महादलित भी हैं, इस ताने-पबाने की वजह से वो कभी कांग्रेस के साथ हो जाते हैं तो कभी बीजेपी के साथ भी उनका गठबंधन काम करता रहता है. इसलिए बीजेपी भी उनके साथ अबतक बनी हुई है.
लेकिन इसमें ध्यान देना होगा कि 2015 की बीजेपी की अभूतपूर्व बढ़त के बाद बिहार ने ये बढ़त रोक लिया था. बंगाल में भी रुक गई बीजेपी. इसके बाद यूपी में बड़े पैमाने पर पार्टी ने वापसी की. लेकिन इसके बाद गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और हरियाणा से बीजेपी के लिए अच्छे संकेत नहीं आए. कुछ जगहों पर काफी संघर्ष के बाद सत्ता में आए लेकिन बहुमत लेने में कामयाब नहीं हुए. अब बिहार में परीक्षा की घड़ी बीजेपी के लिए है. तो जो लोग ये कहते हैं कि जेडीयू के लिए तीसरी बार एंटी-इनकंबेंसी बड़ी समस्या है और बीजेपी की शायद बढ़त हो जाएगी, इस बात में विरोधाभास है.
उदाहरण के तौर पर देखिए कि जो शख्स जेडीयू से नाराज है वो बगल के विधानसभा क्षेत्र में बीजेपी के लिए वोट करेगा क्या? अगर वो नीतीश से नाराज है तो वोट तो विपक्ष के पास ही जाना चाहिए, ऐसे में कुल मिलाकर ये बीजेपी के लिए बहुत बड़ा दांव है.
अब ये भी सोचिए कि बिहार के मिजाज में वो क्या खास है, जिसने बीजेपी के धुर-धार्मिक ध्रुवीकरण वाले टूल को हलका कर दिया है. जो पार्टी हर राज्य में नई-नई कहानियां लेकर आती है और उसे प्ले-आउट करती है वो बिहार में इसे लेकर सहमी हुई है. यहां राष्ट्रवाद की बात, 370 की बात दबे स्वर में तो हो रही है लेकिन ध्रुवीकरण की बहुत बड़ी कोशिश, हिंदू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान या गिरिराज सिंह के जहरीले बयान, ये सब नदारद दिख रहे हैं.
तो एक समय जैसे लालू यादव ने आडवाणी का विजय रथ रोक दिया था, तो वहीं अब नीतीश ने भी अल्पसंख्यकों का बड़ा स्वर होने के कारण और सामाजिक समरसता को देखते हुए बीजेपी को थामा और संभाला. यही कारण है कि बीजेपी अपने अपर कास्ट जनाधार के साथ बैकवर्ड कास्ट की राजनीति तो कर रही है लेकिन धार्मिक मामलों पर एकदम चुप है. ये चुप्पी काफी अहम है.
नीतीश बिहार चुनाव में तीन तरफ से घिरे हैं. पहला घेराव बीजेपी की तरफ से है जिसे 'दोस्ताना घेराव' कहा जा सकता है. दूसरा तेजस्वी की तरफ से है. 31 साल के युवा को जिस तरीके का अट्रेक्शन मिल रहा है उसका अनुमान कई पर्यवेक्षकों को भी नहीं था. रैलियों में भारी भीड़ तेजस्वी यादव की लोकप्रियता के तरफ इशारा कर रही है. नीतीश कुमार को तीसरी तरफ से घेरा है लोकजनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान ने. चिराग की पार्टी पहले एनडीए का हिस्सा थी. लेकिन अब चिराग सीधा निशाना नीतीश कुमार पर साध रहे हैं. इसलिए आरोप ये भी है कि बीजेपी और एलजेपी दोनों मिलकर नीतीश को घेर रहे है.
कांग्रेस का जिक्र इसलिए कर लेना चाहिए कि क्योंकि वो राष्ट्रीय पार्टी है. कभी-कभी अच्छा कर लेती है लेकिन बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल में अब उनकी कोई गेम नहीं है. लेकिन 'शामिल बाजा' की रोल में दिख रही इस पार्टी को तेजस्वी के उभार से थोड़ा फायदा मिल सकता है.
कुल मिलाकर भारत में किसी भी चुनाव के बारे में कोई भविष्यवाणी करना बड़ा बेवकूफी का काम है. जो ओपिनियन पोल अभी अनुमान जता रहे हैं, उसमें एनडीए के लिए साफ बहुमत दिख रहा है लेकिन आप यह मान कर चलिए, जिस प्रकार से बिहार में युवा लोगों में नाराजगी है. जैसा माहौल बना है, उसको देखकर लगता है कि बिहार का वोटर सरप्राइज रख सकता है.
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