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वीडियो एडिटर: पूर्णेंदु प्रीतम
नेटफ्लिक्स (Netflix) पर एक डॉक्यू ड्रामा रिलीज हुआ है द सोशल डाइलेमा (The Social Dilemma). क्या आपको पता है कि उसमें आप भी रोल निभा रहे हैं. उसमें मैं भी एक किरदार हूं. लेकिन हमें ये बात पता नहीं थी. कुछ एहसास था कि हम लोग किसी गेम में फंसे हुए हैं और उसके पात्र हैं लेकिन इतना साफ-साफ नहीं पता था कि हम इसमें कितनी बड़ी भूमिका निभा रहे हैं. 'वी द पीपल' की जगह हम लोग 'वी द डेटा' हो गए हैं.
कहानी बड़ी साधारण है कि सोशल मीडिया ने जो सोशल डाइलेमा खड़ा किया है, जो सामाजिक ताना-बाना पूरी तरह से टूट रहा है, उसमें उसकी क्या भूमिका है, कैसे इसकी कल्पना की गई थी और हम कहां पहुंच गए हैं?
जो बड़ी तकनीक कंपनियां हैं उन्होंने कैसे पूरे ब्रह्मांड को कब्जे में कर लिया है. ये देशों की सीमाओं से परे हैं. ये दुनिया में कई देशों में राज करते हैं. ये सरकारों से ज्यादा ताकतवर लोग हैं. ऐसा बिजनेस चला रहे हैं जिसके चक्र में हम फंस गए हैं. हम इनके हाथ की कठपुतली हो गए हैं. इस डॉक्यू ड्रामा में यही बात है, जो हम सभी के लिए देखना जरूरी है. आपको बातों का साफ-साफ पता चल जाएगा.
ये कैसे होता है?
दरअसल इसे अटेंसन इकनॉमी कहते हैं अगर कंपनियों को विज्ञापन देना होता है तो ये सोशल मीडिया कंपनियां कहती हैं कि आपको इतने यूजर्स लाकर दे देंगे. यूजर्स का इन महत्वपूर्ण प्लैटफॉर्म पर ज्यादा से ज्यादा वक्त कैसे बीते उसके लिए हमें जज करते हैं. हमें जो नशेड़ी बनाते हैं उनके टूल हैं- शेयर करो, लाइक करो, नोटिफिकेशन खोलो, फोटो के साथ टैग करो. फिर आप जिस तरीके की चीजें देखते हैं वैसी ही चीजें रिकमेंड करते हैं.
अमेरिका के एक एक्सपर्ट बताते हैं कि 2010-11 तक टीनएज बच्चों में आत्महत्या का अनुपात और खुद को नुकसान पहुंचाने का आंकड़ा क्या था.
इसके अलावा असामाजिक तत्व, पोलराइजेशन, सिविल वॉर कराने वाले, झूठ को सच बनाने वाले लोग इन टूल्स का इस्तेमाल करते हैं. और इनको रोकने का कोई तरीका नहीं है. रोकने पर आपके पास डेटा कम आएगा. और ये कंपनियां डेटा पर ही चलती हैं. हम इंसान नहीं रहे. हम डेटा हो गए हैं.
आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस या मशीन लर्निंग का काम ये नहीं है कि इंसानों के व्यवहार का काम जानकर मुकाम तक पहुंचे. मुकाम तय करने के बाद इंसान को वहां पहुंचाया जाता है. हमें हमारे मानसिक व्यवहार का पता नहीं चलता और ये टूल हमसे ले लिया जाता है. हम कहीं भी जाते हैं तो खुश होने जाते हैं. कोई हमारी चीजों को लाइक करता है तो हमें अच्छा लगता है.
ऐसा सोचा गया था कि इस तरह की तकनीक एक आदर्शलोक बनाएगी लेकिन हम पाताललोक में जा रहे हैं. जैसे कंपनी को कंज्यूमर की जरूरत होती है वैसे ही पॉलिटिशियन को वोटर की जरूरत होती है. नेता भी इनके ट्रैप में फंस चुके हैं. अमेरिका में बात की जा रही है कि सोशल मीडिया के जरिए पूरा चुनाव हैक किया जा रहा है. रूस तकनीक का इस्तेमाल कर ऐसा कर रहा है.
इससे बचने के 2 उपाय
1) निजी तौर पर हम और आपको उस नशे से निकलना जरूरी है
2) जब तक इन बड़ी कंपनियों पर रेगुलेशन नहीं लगेगा, तब तक पाताललोक का सफर जारी रहेगा.
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