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अगर आपका जन्म 1950 के दशक में हुआ होता, तो 70 के दशक तक आप यह मानते हुए बड़े हुए होते कि भारत ने ‘मिली-जुली अर्थव्यवस्था’ यानी ‘मिक्स्ड इकनॉमी’ की खोज की है. हमें यह घोंटकर पिलाया जाता था कि देश के उद्योग किसी सेठजी (पूंजीपति) की बदौलत नहीं, बल्कि ‘निस्वार्थ’ सरकार की वजह से ऊंचाइयों पर पहुंचे हैं.
1990 के दशक की शुरुआत में जब अर्थव्यवस्था बदहाल हुई, तब पता चला कि हम भ्रम में जी रहे थे. हममें से ज्यादातर को पता नहीं था कि ‘मिक्स्ड इकनॉमी’ के सिद्धांत ने ब्रिटेन में 1930-1940 के दशक में शक्ल अख्तियार की थी. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यूरोप में ‘मिलीजुली अर्थव्यवस्था’ के आइडिया को अपनाया गया. वहां ज्यादातर उद्योगों का मालिक निजी क्षेत्र था और कुछ पब्लिक यूटिलिटीज और जरूरी सेवाओं पर सरकार का कंट्रोल था.
सरकार की भूमिका पर्यावरण संरक्षण, रोजगार का स्तर, कल्याणकारी योजनाओं और खुली प्रतियोगिता को बनाए रखने तक सीमित थी. यूरोप में जिस ‘मिक्स्ड इकनॉमी’ को अपनाया गया, वहां काफी हद तक मुक्त व्यापार व्यवस्था यानी फ्री मार्केट सिस्टम के हिसाब से काम कर रहा था. सरकार वाजिब वजहों से उसमें दखल देती थी और सामाजिक न्याय और खुली प्रतियोगिता को बनाए रखती थी.
भारत की ‘मिक्स्ड इकनॉमी’ कुछ अलग थी. यहां सरकार का दबदबा था और वही मालिक भी थी. यह ऐसा सरकारी पूंजीवाद था, जिसने संपत्ति बढ़ाई नहीं, बल्कि उसे बर्बाद किया. ट्रांसपोर्टेशन, बैंकिंग, टेलीकॉम, हॉस्पिटैलिटी, स्टील, कोयला, हथियार, यूनिवर्सिटी और न जाने किन-किन क्षेत्रों पर उसका एकाधिकार था.
बुरी बात यह है कि सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले कृषि क्षेत्र का नियंत्रण निजी हाथों में था. यह मध्ययुगीन ढर्रे पर चलता रहा और इसमें सुधार की कोशिश नहीं की गई. यहां तक कि इस पर ‘मिक्स्ड इकनॉमी’ की परछाई तक नहीं पड़ी. जाने-माने अर्थशास्त्रियों ने कहा कि इसी वजह से सोशलिज्म की सुस्त ग्रोथ और कैपिटलिज्म की गैरबराबरी दोनों का दंश देश को झेलना पड़ा.
अफसोस की बात यह है कि हमने 1991 के संकट से मिले मौके को गंवा दिया. हमने मिक्स्ड इकनॉमी और उसके विरोधाभास को खत्म नहीं किया. इसके बजाय हमने ‘उदारीकरण’ का रास्ता चुना, जिसमें व्यापार, उद्योग को खोला गया और निवेश के लिए दुनिया को न्योता दिया गया. इससे अर्थव्यवस्था की रफ्तार बढ़ाने में मदद मिली, लेकिन यह उतना 'क्रांतिकारी' साबित नहीं हुआ, जितना इसे बताया गया था.
इससे आर्थिक तरक्की के मामले में हम 7-8 पर्सेंट पर आकर ठहर गए, लेकिन 10 पर्सेंट ग्रोथ का बैरियर पार नहीं कर पाए, जिसकी बदौलत चीन अपने यहां गरीबी में भारी कमी लाने में सफल रहा. कभी चीन में हमारे यहां जितनी ही गरीबी थी.
पिछले 70 साल में हम जिस धीमी गति से सुधार करते आए हैं, मैं उम्मीद करता हूं कि आने वाली सरकार उससे पीछा छुड़ाकर नया इकनॉमिक मॉडल बनाएगी. ऐसा मॉडल जो न लेफ्ट का हो, न राइट का. न पूंजीवादी हो और न ही समाजवादी. यह ऐसा मॉडल हो, जो हमारी जरूरतों के मुताबिक हो. जो आज की राजनीतिक सीमाओं और सच्चाइयों को स्वीकार करते हुए इकनॉमी को ‘अनमिक्स’करे.
पहले तो हमें 1991 के ‘क्रांतिकारी आर्थिक सुधारों’ का जश्न मनाना बंद करना होगा. मैं मानता हूं कि 1990 के दशक में ट्रेड, इंडस्ट्री और इनवेस्टमेंट पॉलिसी में जो बदलाव हुए, उनसे हमें फायदा हुआ है. हम 1970 के दशक के सरकारी दबदबे वाली अर्थव्यवस्था में अब नहीं जकड़े हैं. हालांकि, इससे इकनॉमी पहले गियर से निकलकर दूसरे गियर में पहुंची है.
इंडियन इकनॉमिक मोटर की चेसिस में अभी भी दरार पड़ी है. यह निजी क्षेत्र और सरकारी कंट्रोल के बीच फंसी है. इसलिए जब 1991 के क्रांतिकारी आर्थिक सुधारों से हुए बदलावों का जश्न मनाया जाता है, तो मेरे लिए हंसी रोकना मुश्किल हो जाता है. जरा देखिए कि इन सुधारों ने हमें कहां लाकर खड़ा किया है:
मैं ऐसे कई आंकड़े दे सकता हूं, लेकिन वह वैसे ही फिजूल होगा, जैसे हमारी मिक्स्ड इकनॉमी फिजूल साबित हुई है. मैं एक बार फिर कहना चाहता हूं कि इकनॉमी को अन-मिक्स करने का समय आ गया है.
आम तौर पर फ्री मार्केट के लिए सरकार का दखल कम करने और उद्यमियों को आजादी देने का मंत्र दिया जाता है. मैं इसके बजाय सरकारी दखल बढ़ाने की बात कह रहा हूं, लेकिन यह सिर्फ 5 क्षेत्रों में बढ़ना चाहिए.
शिक्षा: इस पर खर्च तिगुना किया जाए. टीचिंग और उसे मापने की स्किल अपग्रेड की जाए और विशालकाय स्कूल वाउचर प्रोग्राम की असरदार निगरानी हो.
स्वास्थ्य: इस पर भी खर्च को तीन गुना किया जाए, टीबी, मलेरिया और एचआईवी से लड़ने पर ध्यान दिया जाए और गरीबों के लिए यूनिवर्सल हेल्थ इंश्योरेंस प्रोग्राम लागू हो.
ग्रामीण और कृषि इंफ्रास्ट्रक्चर पर भी खर्च को तीन गुना बढ़ाया जाए. जहां संभव हो, वहां डिवेलप्ड एसेट्स को निजी हाथों में दिया जाए और उससे मिलने वाले पैसे को क्षेत्र को और बेहतर बनाने के लिए लगाया जाए.
शहरी इंफ्रास्ट्रक्चर को तेजी के साथ डिवेलप किया जाए. लेकिन जो प्रोजेक्ट्स तैयार हो चुके हैं, उन्हें निजी क्षेत्र को बेच दिया जाए और इससे मिले पैसे से नए प्रोजेक्ट्स पूरे किए जाएं.
सरकार जब इन 5 क्षेत्रों में अपनी ऊर्जा और संसाधन लगाएगी, तो प्राइवेट इकनॉमिक एक्टिविटी में उसका दखल अपने आप कम हो जाएगा. उन क्षेत्रों में मार्केट अपना काम करेगा और सिर्फ उन्हें अच्छी तरह रेगुलेट करने की जरूरत होगी. बाकी क्षेत्रों से खुद को अलग करने का काम सरकार आधे-अधूरे मन से न करे. फिर सरकारी दखल और उद्यमियों की आजादी वाला मंत्र तो है ही. सरकार और बिजनेस को अलग करने से ही भारत को आर्थिक मोक्ष मिलेगा. अगर हम ऐसा नहीं करते तो हमेशा मिक्स्ड रिजल्ट ही मिलेंगे.
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