Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Videos Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019एक मजदूर की जुबानी, मजबूरी की पूरी कहानी

एक मजदूर की जुबानी, मजबूरी की पूरी कहानी

मजदूरों को घर क्यों जाना?

शादाब मोइज़ी
वीडियो
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मजदूरों के पलायान की कहानी
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मजदूरों के पलायान की कहानी
(फोटो: AP)

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वीडियो एडिटर- कुणाल मेहरा

मैं पत्रकार हूं. पर आज एक मजदूर की मजबूरी जानने के लिए. मजदूर की तरह सोचने की कोशिश कर रहा हूं. खुद को उसकी जगह रखकर समझने की कोशिश कर रहा हूं कि लॉकडाउन में उसपर क्या बीत रही है? गांव लौटने की जंग और इसके लिए सैकड़ों मील पैदल चलने की मजबूरी, पुलिस की लाठी से फिजिकल डिस्टेंसिंग की नाकाम कोशिशें, रेलवे स्टेशन तक पहुंचने का पहाड़,  रजिस्ट्रेशन, मेडिकल, यानी ट्रेन में एक कोना पाने की जद्दोजहद और ये सब हो जाए तो दो जून की रोटी, पानी, घर परिवार चलाने की चिंता. सबकुछ.

मुझे मालूम है कि मैं मजदूरों की तकलीफ का अंश मात्र भी महसूस नहीं कर सकता हूं..लेकिन मेरी तरफ से एक ईमानदार कोशिश है. चलिए आपको आज अपनी दुनिया में, हम मजदूरों की दुनिया में ले चलते हैं.

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मजदूरों को घर क्यों जाना?

किसी ने कहा हम मजदूरों को गांव क्यों जाना है, ऐसे भी तो साल में एक बार घर जाते हैं, अभी घर जाने की बेचैनी क्यों? जरूर जनधन खाता में आने वाले पैसे का लालच है. या राज्य सरकार से 1000 रुपए मिल रहे हैं वो लेना होगा.. या फिर किसी की चाल है.. चालें दिखीं लेकिन छालें नहीं, जो हमारे पांवों पे उग आई हैं.

10 बाई दस के कमरे में 5 लोगों के साथ सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना, इस 10 बाई 10 का किराया देना, वो भी बिना तनख्वाह के. मालिक मतलब कारखाने के और कहीं ना कहीं हमारी जिंदगी के मालिक ने भी अपने कारखाने में ताला लगा दिया है.

सरकार बोली की कोई किसी को नौकरी से ना निकाले, पूरी सैलरी दे. लेकिन साहब अपील का कैंसिल चेक भंजता नहीं, हमारा भी नहीं भंजा. फैक्ट्री में ताला पड़ा, लेकिन पेट पर कोई ताला नहीं लगता है. नौकरी गई, रेंट वाला रूम भी गया. खाने के लाले पड़ गए.

चली ट्रेन, फिर भी नहीं चैन

सरकार ने एक महीने बाद मजदूरों के लिए ट्रेन चलाई है.. टीवी पर खूब प्रचार भी हो रहा है. कहते हैं सब फ्री है, लेकिन टिकट के लिए पैसे देने पड़ रहे हैं..और तो और हमें रेजिस्ट्रेशन कराना है, फॉर्म भरना है लेकिन कैसे करें? यही नहीं हमें फिटनेस सर्टीफिकेट भी बनवाना है, उसके लिए भी डॉक्टर पैसा ले रहे हैं.

इतने पैसे नहीं हैं कि ट्रेन का किराया दें सकें, फिर स्टेशन जाने के लिए पैसा कहां से लाएं. स्टेशन 70 किलोमीटर दूर है. पेट अंदर करने के लिए ट्रेडमिल पर या पार्क के मखमली घांस पर जॉगिंग नहीं बल्की तपती धूप में रबर के इस चप्पल को पहनकर चलना है.

रास्ते में हैं, 6 घंटे से चल रहे हैं. पानी का बिसलेरी वाला बोतल नहीं खरीद सकते हैं, जो पानी था वो भी अब गर्म हो चुका है, दिल और गला दोनों जल रहा है.

मजदूरों पर पुलिस का सैनेटाइज डंडा

पुलिस रोकती है तो कई बार सैनेटाइज डंडे से स्वागत करती है, हमारे ऊपर संवेदना नहीं केमिकल का छिड़काव किया जाता है, हमें गाड़ी-घोड़ा नहीं हमसे ही घुड़दौड़ करवाया जाता है.

घर वालों को चलने से पहले बोल दिए थे कि चल रहे हैं, कब पहुंचेंगे पता नहीं. अब मोबाइल की बैट्री भी हमारी हिम्मत की तरह लो हो गई है. देखते हैं कहीं चार्ज करने का कोई जुगाड़ हो जाए.

एक बार तो आदेश आया कि अब ट्रेन नहीं जाएगी, मजदूर चले गए तो काम कौन करेगा. फिर डंडे के बल पर हमें रोका गया.

हम जानते हैं घर जाकर हमारी परेशानी कम नहीं होगी. लेकिन घर जाना चाहते हैं, ताकि घर पर दो कठ्ठा जमीन में जो सब्जी उगती है वही खाकर गुजारा कर लेंगे. कम से कम परिवार के बीच तो रहेंगे. दम भी निकलेगा तो मां-बाबू जी के जमीन पर. यहां कहां कोई हमारी लाश को हाथ लगाएगा क्या?.

कई सवाल हैं, जिसके जवाब हमें मिलते नहीं

एक सवाल करें- हम मजदूर हैं, इस परेशानी में भी फॉर्म, रजिस्ट्रेशन इतने तिकड़मों की जरूरत क्या है? क्यों नहीं हम मजदूर अपना पहचान पत्र दिखाकर ट्रेन में बैठ सकते? मजबूर हैं तब ही इस महामारी में बाहर आए हैं. कौन अपने परिवार की जिंदगी को जोखिम में डालकर ट्रेन में बैठेगा? कोई कहता है पैसा लगेगा, कोई कहता है कि पैसा घर पहुंचने पर दिया जाएगा.. क्यों नहीं सरकारें रेल किराए का हिसाब-किताब आपस में ही सलटा लेती हैं?

ये सारा बोझ हमारे कंधे पर क्यों डाला गया? जो लॉकडाउन का बोझ उठाते-उठाते पहले ही झुके जा रहे हैं. दरअसल, सिस्टम में हम मजदूर की न कोई चिंता है, न सुनवाई. कहां हैं नेता दिन रात गरीब मजदूर का रट लगाते हैं. कहां हैं सांसद, कहां हैं विधायक. कहां है सरकार?

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