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इकनॉमी को बचाने के लिए विदेशी पूंजी के बिना कोई चारा नहीं

कोरोना वायरस महामारी ने तमाम देशों की अर्थव्यवस्था को बड़ी चोट पहुंचाई है

संजय पुगलिया
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कोरोना वायरस महामारी ने तमाम देशों की अर्थव्यवस्था को बड़ी चोट पहुंचाई है
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कोरोना वायरस महामारी ने तमाम देशों की अर्थव्यवस्था को बड़ी चोट पहुंचाई है
(फोटो: Quint)

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कोरोना वायरस महामारी ने तमाम देशों की अर्थव्यवस्था को बड़ी चोट पहुंचाई है. भारत में कहा जा रहा है कि अगर सरकार ने कोई बड़ा पैकेज रिलीज नहीं किया तो अर्थव्यवस्था के बिगड़ते हालात बेकाबू हो सकते हैं. इकनॉमिक क्राइसिस से बचने के लिए बड़ी रकम की दरकार है. लेकिन सवाल ये है कि इसके लिए पैसा कहां से आएगा? इस मुद्दे पर क्विंट के एडिटोरियल डायरेक्टर संजय पुगलिया ने नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी (NIPFP) के फेलो अजय शाह से बातचीत की.

बड़ी रकम की जरूरत है, लेकिन पैसा आएगा कहां से?

“मुझे नहीं लगता कि सरकार से खर्च करने की बहुत ज्यादा उम्मीदें रखनी चाहिए. दो चीजें हो रही हैं. संकट से पहले केंद्र सरकार का फिस्कल डेफिसिट ज्यादा था और सरकार बैलेंस शीट से अलग भी बॉरोइंग कर रही थी. जब कोरोना वायरस की वजह इकनॉमी नीचे जाती है, तो सरकार का टैक्स इनकम भी कम होता है. तो सरकार के टैक्स रेवेन्यू में कमी आ जाती है. सरकार के पास कोई एक्शन लेने का बहुत ज्यादा स्कोप बचता नहीं है.”

विदेशी निवेशक भारत में पैसा क्यों लगाएंगे?

“चाहे कुछ हो जाए एक बात साफ है कि भारत में सेविंग है और निवेश है. मान लीजिए कि हमारे पास 25 रुपये सेविंग है और हम 30 रुपये का निवेश करते हैं, तो 5 रुपये का गैप है और ये गैप हमेशा बाहर से ही भरा जाएगा. ये तो गारंटी है कि ये आएगा. सवाल सिर्फ इतना है कि किस कीमत पर आएगा.”  

सभी देशों में यही दिक्कत है. सभी कंपनियां कैपिटल की भूखी हैं. भारत में दिक्कत थोड़ी कम है और इसकी तीन वजहें हैं. पहली तो देश की यंग डेमोग्राफिक, जिसकी वजह से कोरोना वायरस का असर कम रहा. दूसरा, भारतीय फर्म शुरुआत कम बॉरोइंग से करती हैं. इसलिए कोरोना वायरस महामारी से पहले बहुत ज्यादा बॉरोइंग नहीं थी. तीसरी बात ये कि सभी ग्लोबल इन्वेस्टर बुनियादी तौर पर अच्छी कंपनी चाहते हैं. 

अगर 100 रुपये इक्विटी और डेब्ट कैपिटल आपकी कम्पनी में आते हैं, तो क्या आपकी कंपनी एक साउंड बिजनेस है? क्या आप दूसरों से मुकाबला कर सकते हैं? क्या आप इक्विटी पर रिटर्न पैदा कर पाते हैं? भारत में बड़ी संख्या में अच्छे तरीके से चल रहीं कंपनियां मौजूद हैं. तो आप ठीक कह रहे हैं कि ग्लोबल कम्पटीशन है. पूंजी चाह रही एक भारतीय कंपनी को हजारों कंपनियों से मुकाबला करना पड़ेगा. भारत अच्छी स्थिति में है.

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चीन का FDI रोकने के लिए भारत सरकार ने जो फैसले लिए हैं , उस पर क्या सोचते हैं?

“मेरे हिसाब से परेशान होने की वजह है. कुछ एरिया में निवेश का संबंध राष्ट्रीय सुरक्षा से हैं. जैसे कि अगर चीन का निवेश कोर टेलीकॉम कंपनियों में हो, जो भारत का कम्युनिकेशन इंफ्रास्ट्रक्चर चलाती हैं, तो बात परेशानी की है. या फिर न्हावा शेवा में जवाहरलाल नेहरू पोर्ट का मालिकाना हक चीन के पास हो तो परेशान होने की वजह है. लेकिन मुझे लगता है कि सामान्य बिजनेस और कंपनी में निवेश को लेकर इतना परेशान होने की जरूरत नहीं है. हमें अपनी प्रतिक्रिया सोच समझकर देनी चाहिए. जल्दी की अगर बात करें तो मैं आपसे इत्तेफाक रखता हूं. हमें ये तुरंत चाहिए, जल्द से जल्द, हमें देश में ज्यादा से ज्यादा पूंजी चाहिए, इसलिए मुझे लगता है कि हमें काफी सारे प्रतिबंध हटा देने चाहिए, जो हमने पिछले 10 सालों में लगा दिए हैं. जब बात क्रॉस-बॉर्डर बिजनेस की आती है, तो भारत बिजनेस करने के लिए एक मुश्किल जगह बन गया है. टैक्सेशन की दिक्कत है, कैपिटल कंट्रोल, फाइनेंशियल रेगुलेशन, जांच जैसी कई दिक्कतें हैं. हमें ये सब प्रतिबंध हटाने होंगे. जरूरत है कि ये सब तेजी से हो. “

एंटी-ग्लोबलाइजेशन का सेंटीमेंट है. ऐसे में विदेशी कैपिटल के लिए और मुश्किलें खड़ी नहीं हो जाएंगी?

“ये एक परेशानी है. मैं कहना चाहूंगा कि हमें व्यावहारिक रहना चाहिए. हमारा काम भारत, कंपनियों, घरों, फिन-टेक कंपनियों के लिए अच्छा काम करना है. पूरे भारत में बाहरी पूंजी की बहुत जरूरत है. हर उस कंपनी में जरूरत है जिसे नुकसान हुआ है. हमें अपने लोगों और भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रति ईमानदार रहना चाहिए. अगर व्यव्हारिकता और विचारधारा में द्वंद होता है तो हमें व्यव्हारिकता के साथ जाना चाहिए.”

भारत सरकार के रिलीफ पैकेज पर क्या कहना है?

“भारत सरकार प्रतिक्रिया में संकोची रही है और मुझे लगता है कि ये ठीक है. हमारे पास वो फिस्कल स्पेस नहीं हैं. जर्मनी का उदाहरण देखिए. 2008 के संकट के बाद 10 साल तक जर्मनी ने कम खर्च वाली फिस्कल पॉलिसी अपनाई, सालाना एक छोटा प्राइमरी सरप्लस चलाया. उनका उधार लेने का तरीका अच्छा था. वो किसी को सरकार को पैसे देने के लिए मजबूर नहीं करते. सरकार बोली लगाती है और उन लोगों से उधार लेती है जो खुद देना चाहते हैं. ये सब कुछ 10 सालों तक किया गया. अब जब कोरोना वायरस महामारी का समय आया तो जर्मनी 10% जीडीपी का एक फैसला कर पाया. हम उस जगह नहीं है. हमारा फिस्कल डेफिसिट ज्यादा है, सरकार के बॉरो करने की कोई व्यवस्था नहीं है, पब्लिक डेब्ट मैनेजमेंट एजेंसी नहीं है, सरकार के लिए प्रोफेशनल इन्वेस्टमेंट बैंकर नहीं है. हमें अपनी सीमाएं पहचाननी होंगी. मुझे लगता है कि सरकार सचेत रही है और यही सही था.”

सरकार आपके आइडिया को मानेगी, इसकी कितनी उम्मीद है?

“इसके लिए विंस्टन चर्चिल की बहुत मशहूर लाइन है- इंसान और देश सभी तर्कसंगत विकल्पों को परखने के बाद सही कदम उठाएंगे. मुझे लगता है कि ये आइडिया अब पहले से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हैं.”

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Published: 22 Apr 2020,08:13 PM IST

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