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लॉकडाउन डायरीज: कितनी बदली है आम जिंदगी, शुरुआती 3 दिनों की आपबीती

कोरोनावायरस की वजह से मैं घर में कैद रहने को मजबूर हूं

वैभव पलनीटकर
वीडियो
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कोरोनावायरस की वजह से मैं घर में कैद रहने को मजबूर हूं.
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कोरोनावायरस की वजह से मैं घर में कैद रहने को मजबूर हूं.
(फोटो: क्विंट हिंदी)

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24 मार्च को प्रधानमंत्री मोदी ने अपने संबोधन में कोरोनावायरस के संक्रमण को रोकने के लिए पूरे देशभर में लॉकडाउन का ऐलान किया और एक झटके में पूरा का पूरा देश मानो रुक गया. जो जहां है वहां फंसा रह गया. इसी तरह मैं भी जरूरी काम से अपने घर मध्य प्रदेश के दमोह जिले में आया था और अब यहीं आकर फंस गया हूं. वैसे मैं नोएडा में रहता हूं. अब मेरे पास वापस नोएडा लौटने के लिए कोई साधन नहीं है. यातायात के सारे विकल्प अगले 21 दिनों तक बंद है. कोरोनावायरस की वजह से मैं घर में कैद रहने को मजबूर हूं. इसकी वजह से मेरी आम रोजमर्रा की जिंदगी पूरी तरह से बदल गई है.

लॉकडाउन के इन 21 दिनों में अपनी रोजमर्रा की जिंदगी आप तक पहुंचाऊंगा कि मैं कैसे अपना लॉकडाउन का वक्त काट रहा हूं. इस वीडियो ब्लॉग में मैं अपनी आम जिंदगी के पलों को शेयर करूंगा. इसी व्लॉग सीरीज का नाम है- लॉकडाउन डायरीज.

24 मार्च की रात को लॉकडाउन का ऐलान हुआ. उसी दिन मेरे घरवालों ने दरख्वास्त की कि मैं तुरंत जाकर सब्जी ले आऊं. घर में वाकई में सब्जी नहीं थी तो मैं सब्जी खरीदने बाजार गया. लेकिन पहले से ही स्थानीय प्रशासन ने लॉकडाउन की घोषणा की हुई थी इसलिए गिनी चुनी दुकानें खुली हुई थीं, लेकिन जितनी भी खुली थीं. सारी सब्जियों की दुकानों पर जबरदस्त भीड़ थी. लोग पैनिक बाइंग कर रहे थे.

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पहला दिन

लॉकडाउन के पहले दिन की शुरुआत मैंने की व्यायाम के साथ. वैसे तो आमतौर पर मैं घर पर दौड़ने पास की ही पहाड़ी पर जाया करता था लेकिन पुलिस की सख्ती की वजह से और सोशल डिस्टेंन्सिंग का ख्याल रखते हुए बाहर न जाने का फैसला किया. कोरोनावायरस के बढ़ते आंकड़े और बाकी खबरों के देखते हुए अपने अंदर का डर बढ़ रहा है. वक्त काटने के नए-नए इंतजाम करने की जुगाड़ कर रहा हूं. कभी चाय बना रहा हूं तो कभी घर के किसी कबर्ड की सफाई कर रहा हूं. जैसे तैसे शाम तक कुछ किया लेकिन जब रात के भोजन के बाद कुछ नहीं सूझ रहा था तो मैंने अपने पुराने कुछ शेल्फ का रुख किया और वक्त काटने के लिए किताब पढ़ना शुरू किया. हमेशा सोचा करता था कि किताब पढ़ने के लिए खाली वक्त मिल जाएगा तो कितना मजा आएगा. लेकिन इस बार वक्त भी है, किताबों का जुगाड़ भी हो गया लेकिन किताब पढ़ने में मजा नहीं आ रहा है. अंदर ही अंदर थोड़ा डर है. कुछ सवाल भीतर ही भीतर कौंध रहे हैं. कोरोनावायरस की ये बीमारी का अंत कब होगा. फिर मुझे वैसी ही दुनिया कब मिलेगी जैसी हमेशा से थी? वगैरह वगैरह. इसी के साथ पहला दिन खत्म हुआ.

दूसरा दिन

दूसरे दिन की शुरुआत भी व्यायाम के साथ ही हुई. दूसरे दिन वक्त का बोझ महसूस न हो इसलिए मैंने तय कि कुछ-कुछ काम किया जाए. काम में हाथ बंटाया जाए. जैसे घर में झाड़ू लगाने का काम, छत पर रखे गमलों में पानी डालना, थोेड़े बहुत बर्तन धोने का काम मैंने अपने जिम्मे ले लिया. मन ही मन सोचा कि थोड़ा वक्त भी बीतेगा और घरवालों के लिए मदद भी बन सकूंगा. ये सब करके भी वक्त ही वक्त बच रहा है. इसका तोड़ निकला मनोरंजन के जरिए. कुछ पुराने तो कुछ नए खेल निकाले गए. क्रिकेट, लूडो, प्लेइंग कार्ड् ये सब खेल बदल-बदलकर  खेले गए. बाकी रात के भोजन के बाद किताब का सहारा तो था ही.

तीसरा दिन

तीसरे दिन की शुरुआत भी व्यायाम के साथ हुई. आज मौसम में बेरुखी थी, पतझड़ का मौसम, हल्के हल्के बादल और बारिश की कुछ बूंदे. मौसम की करवट के साथ मन के भीतर की बेचैनी भी बढ़ रही थी. बार-बार वहीं सवाल मन में कौंध रहा था कि ये सब कब तक ऐसे ही चलेगा. घर के कुछ काम, मनोरंजन और किताबें. आज घर का राशन खत्म हो गया था तो मैं घर के लिए कुछ राशन लेने गया.

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