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वो 78 साल की हैं, उनके पति 88 साल के हैं. दोनों अपनी जिंदगी खत्म करना चाहते हैं. नारायण और इरावती लवाटे सेहतमंद हैं, आर्थिक तौर पर भी ठीक हैं और मुंबई में लाखों और लोगों की तरह रहते हैं. लेकिन जिंदगी को लेकर अब उनकी कोई दिलचस्पी नहीं बची है. सुप्रीम कोर्ट ने कुछ शर्तों के साथ इच्छामृत्यु की इजाजत को बरकरार रखा है. अपने ऐतिहासिक फैसले में कोर्ट ने लिविंग विल की व्यवस्था भी की है.
लवाटे कोई बच्चा नहीं चाहते थे और उन्होंने कोई बच्चा किया भी नहीं. शायद यही वजह है कि कोई ऐसा सिरा, कोई ऐसा बंधन नहीं जो उन्हें रोक रहा हो. नारायण लवाटे कहते हैं, “कभी न कभी तो हमें मरना ही है तो क्यों न अभी मर जाएं. जितना जल्दी, उतना अच्छा.”
इस दंपति की अजीब सी लगने वाली मांग ने एक बहस छेड़ दी है. क्विंट, इस बहस को एक डॉक्टर, वकील और फिलॉसफी के प्रोफेसर से समझने पहुंचा.
अरुणा शानबाग केस में भी साल 2011 में देश भर में इच्छामृत्यु को लेकर बहस छिड़ी थी. अरुणा के केस में पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार सशर्त इच्छामृत्यु को इजाजत दी थी. अरुणा शानबाग का केस लड़ने वाले वकील शेखर नफाडे कहते हैं,
क्विंट से बातचीत में लवाटे दंपति कहते हैं, “हम उम्र के साथ होने वाली बीमारियों की चपेट में आना नहीं चाहते. मरने के बाद हम अपने अंग भी दान कर देने वाले हैं. जब हमारे सारे अंग ठीक से काम कर रहे हैं, तभी उन्हें दान करना भी बनता है.”
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