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वीडियो एडिटर: पूर्णेंद्रु प्रीतम, विवेक गुप्ता
“बड़ी संख्या में दलितों ने बौद्ध धर्म अपनाया...” ये हेडलाइन हम अक्सर पढ़ते हैं. हिंदू धर्म में जाति व्यवस्था की वजह से ठगे और बहिष्कृत महसूस करने पर भारत के 80 लाख बौद्ध धर्म अनुयायियों में से 87% अपना धर्म बदल कर इसमें शामिल हुए. लेकिन क्या इससे उन्हें बराबरी मिल पाई?
द क्विंट ने इसी सिलसिले में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की यात्रा की जहां ऊपरी जाति के हिंदुओं और अम्बेडकरवादियों के बीच बढ़ता तनाव साफ दिखा. हमने जानने की कोशिश की कि हिंदुत्व छोड़ बौद्ध धर्म अपनाने वाले उन दलितों के जीवन में क्या बदलाव आया?
महाराणा प्रताप जयंती पर राजपूतों और दलितों के बीच विवाद के बाद मई-अप्रैल 2017 में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में हिंसा हुई थी. हिंसा में राजपूत समुदाय के एक शख्स की मौत हो गई, और कम से कम 12 दलित गंभीर रूप से घायल हो गए थे. 55 दलित घरों को जला दिया गया था. हिंसा के बाद भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आजाद को जून में जेल भेजा गया और उसके बाद जमानत देने से इनकार कर दिया गया.
इस हिंसा की ही देन है कि वहां 180 परिवारों ने बौद्ध धर्म अपना लिया. हमने उनमें से कुछ लोगों से मुलाकात की.
आप जैसे ही पश्चिमी यूपी के सहारनपुर के रुपदी गांव में घुसते हैं आपका स्वागत लोग ‘जय भीम’ कहकर करेंगे. ये अंबेडकरवादी- बौद्ध धर्म के लोग हैं, जो हिंदुत्व को सिरे से नकारते हैं.
इनके घरों में देवी-देवताओं की मूर्तियों की जगह बुद्ध की प्रतिमा ने ले ली है. हिंदुत्व से जुड़े होने का कहीं भी नामो-निशान नहीं मिलता. वो कहते हैं उनके घरों में इन मूर्तियों की कोई जगह नहीं है क्योंकि हिंदुत्व ने उन्हें कुछ नहीं दिया.
22 साल के छात्र संदीप सिंह उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के ठाकुर-वर्चस्व वाले महोली गांव में रहते हैं. संदीप को बचपन से गांव के तालाब में नहाने से रोका गया जहां ब्राह्मण और ऊंची जाति वाले हिंदू नहाते थे.
वो कहते हैं-
संदीप ने बौद्ध धर्म अपना लिया. लेकिन वो कहते हैं कि हिंदुत्व को पीठ दिखाना इतना आसान नहीं था. संदीप को इस बदलाव के लिए साल 2010 से 2016 यानी 6 साल का समय लगा.
संदीप अकेला नहीं था जो डर गया. आगरा में 60 किलोमीटर दूर, हमने हरिबाबू बौद्ध और उनकी पत्नी प्रेमवती बौद्ध से मुलाकात की.
हरिबाबू बौद्ध का कहना है कि अन्य दलित बच्चों की तरह जिनके माता-पिता उनसे काम कराना चाहते थे और पढ़ाई की जगह कमाई कराना चाहते थे, उन्हें भी स्कूल से बाहर निकाला गया था. उन्होंने 30 साल पहले बौद्ध धर्म अपनाकर अपने बच्चों के साथ ऐसा न करने की कसम खाई.
क्या परिवर्तन का मतलब हिंदू उत्सवों को नहीं मानना है?
इस बारे में संदीप कहते हैं-
इसपर हरिबाबू बौद्ध का नजरिया कहता है-
संदीप की बहन बबिता कुमार कहती हैं बौद्ध धर्म हिंदू धर्म से बेहतर है. हिंदू धर्म में, हमारे लिए कोई जगह नहीं है, वे हमें बराबर नहीं मानते हैं.
ये पूछे जाने पर कि क्या लोग अब आपको बराबरी देते हैं?
बबिता ने जवाब दिया- “नहीं, ऐसा नहीं हुआ है. अगर वे देते हैं या वे नहीं देते हैं, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. हमने समाज के लिए नहीं, बल्कि अपने लिए धर्म बदल दिया. बाबा साहेब के बारे में हमने जाना, फिर हमने हिंदू धर्म को पसंद करना बंद कर दिया.”
वहीं संदीप कहते हैं कि बौद्ध धर्म अपनाने के बाद भी समाज ने उनके प्रति अपना व्यवहार नहीं बदला है. लेकिन उन्होंने समाज से खुद को दूर कर लिया है.
संदीप के घर से निकलते-निकलते हमने उसे कहते सुना-
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