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रोहित वेमुला (Rohit Vemula), दर्शन सोलंकी, अनिकेत अम्बोरे और पायल तडवी. आपको पता है इन सब लोगों में कॉमन क्या है? ये सब दलित, आदिवासी समाज से थे.. हां, थे.. क्योंकि अब ये लोग दुनिया में नहीं हैं. एक और चीज कॉमन है.. इन सबकी मौत कथित आत्महत्या से हुई है.. एक और चीज इन सबके बीच कॉमन है. इन सबकी मौत के पीछे जातिगत भेदभाव और प्रताड़ना का आरोप. इन सबमें एक और चीज कॉमन है. ये सब पढ़े-लिखे थे, देश के सबसे बड़े संस्थानों में पढ़ रहे थे.
बात है 17 जनवरी 2016 की. जगह थी यूनिवर्सिटी ऑफ हैदराबाद. खबर आती है कि एक पीएचडी छात्र की आत्महत्या से मौत हो गई है. वो छात्र था रोहित वेमुला. जाति से दलित. आरोप लगा कि रोहित की जान यूनिवर्सिटी एडिमिनिस्ट्रेशन के जातिगत भेदभाव और प्रताड़ना की वजह से गई.
उस वक्त देशभर में दलित और पिछड़ी जाति से जुड़े छात्रों के साथ हुए भेदभाव को लेकर आवाज उठी थी. अब करीब 7 साल बाद देश के बड़े यूनिवर्सिटी और कॉलेज में दलित-आदिवासी छात्रों की सुसाइड की बढ़ती घटनाओं को लेकर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई चंद्रचूड़ ने भी कई अहम सवाल उठाए हैं.
उन्होंने कहा, "देश के वरिष्ठ शिक्षाविदों में से एक सुखदेव थोराट ने कहा है कि आत्महत्या से मरने वाले अधिकांश छात्र दलित और आदिवासी हैं और यह एक पैटर्न दिखाता है जिस पर हमें सवाल उठाना चाहिए."
चीफ जस्टिस ने अपने स्पीच में आईआईटी बॉम्बे में बीटेक फर्स्ट ईयर में पढ़ रहे एक दलित स्टूडेंट दर्शन सोलंकी की कथित आत्महत्या की घटना का जिक्र किया था. दरअसल, गुजरात के अहमदाबाद के रहने वाले दर्शन सोलंकी ने 12 फरवरी 2023 को कथित तौर पर अपने होस्टल की सातवीं मंजिल से कूद कर जान दे दी थी.
अब शायद कुछ लोग कह सकते हैं कि आप सुसाइड करने वालों की जाति क्यों देख रहे हैं. तो जवाब उन्हें आंकड़े देंगे.
केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने लोकसभा में बताया था कि साल 2014 से लेकर 2021 के बीच IIT, IIM, NIT और देश भर के सेंट्रल यूनिवर्सिटी समेत देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में करीब 122 से अधिक छात्रों की मौत आत्महत्या से हुई है. इन 122 खुदकुशी करने वालों में से 68 छात्र रिजर्व कैटेगरी से आते थे. जिसमें 24 छात्र दलित यानी अनुसूचित जाति और 41 छात्र ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग से थे, और तीन छात्र एसटी यानी अनुसूचित जनजाति थे
आपको कुछ और सरकारी आंकड़े दिखाते हैं जो बताते हैं कि पिछड़ी जातियों के लिए IITs,IIMs कैसे ‘अछूत’ बन गए हैं.
शिक्षा मंत्रालय की तरफ से संसद में पेश किए गए डाटा के मुताबिक खड़गपुर, इंदौर, दिल्ली, गांधीनगर, तिरुपति, मंडी और भुवनेश्वर के IIT में, सामान्य श्रेणी के छात्र ज्यादातर उच्च जातियों से आते हैं. आप इन IIT में छात्रों के आवेदन और एडमीशन के आंकड़े देखिए.
अब इन्हीं IITs में पीएचडी के लिए SC उम्मीदवारों ने जो आवेदन दिया और कितनों का एडमीशन हुआ वो देखिए
दलित-आदिवासी समाज के छात्र ही नहीं बल्कि फैकल्टी को लेकर भी भेदभाव नजर आता है. साल 2022 में बीजेपी नेता किरीट प्रेमभाई सोलंकी की अध्यक्षता में बनी संसदीय पैनल की रिपोर्ट में पाया गया था कि पक्षपातपूर्ण रवैये और भेदभाव के कारण एम्स से एमबीबीएस करने वाले एससी, एसटी छात्रों को बार-बार परीक्षा में फेल किया जाता है.
रिपोर्ट में कहा गया था कि दिल्ली के AIIMS में अक्सर यह देखा गया है कि दलित-आदिवासी छात्रों ने थ्योरी परीक्षाओं में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया था, लेकिन प्रैक्टिकल परीक्षाओं में असफल घोषित कर दिया गया. यही नहीं एससी-एसटी वेलफेयर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि दलित और आदिवासी समुदाय से आने वाले लोगों को फैकेल्टी में नौकरी पाने के दौरान भी भेदभाव का सामना करना पड़ता है.
शिक्षा मंत्रालय की ओर से जारी डेटा के मुताबिक देश भर के सेंट्रल यूनिवर्सिटी, IIT और IIM में प्रोफेसर के 11,000 से अधिक पद खाली हैं. अब अगर दलित-आदिवासी समाज से आने वाले फैकल्टी की बात करें तो मिशन मोड में सीट भरने का दावा करने के बाद भी देशभर के IIT-सेंट्रल यूनिवर्सिटी सालभर में एससी/एसटी/ओबीसी फैकल्टी के खाली पड़े पदों में से सिर्फ 30% भर पाए हैं.
देश भर के 23 IIT और 45 सेंट्रल यूनिवर्सिटी में 5 सितंबर 2021 से 5 सितंबर 2022 यानी कि एक साल के भर्ती अभियान के बावजूद, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 1,439 पदों की पहचान की गई थी, लेकिन सिर्फ 449 की भर्ती की गई. ये बात भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के सांसद एस वेंकटेशन के एक प्रश्न के जवाब में केंद्रीय शिक्षा राज्य मंत्री अन्नपूर्णा देवी ने 19 दिसंबर 2022 को बताया था.
आंकड़ों के मुताबिक 45 सेंट्रल यूनिवर्सिटी में से 33 ने SC/ST कैटेगरी में कुल 1,097 खाली पद की पहचान की थी, जिनमें से सिर्फ 212 भरी गई थीं. आंकड़ों से यह भी पता चला है कि इन 33 सेंट्रल यूनिवर्सिटी में से 18 ने खाली पद की पहचान करने के बावजूद अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग के फैकल्टी मेंबर की भर्ती नहीं की थी.
बात साफ है, चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई चंद्रचूड़ से लेकर आंकड़े बता रहे हैं, सिस्टम में और लोगों की सोच में गड़बड़ है. जातीगत भेदभाव जान ले रहा है, शिक्षा, नौकरी में आगे आने से रोका जा रहा है. और इसे ये कहकर नहीं नकार सकते कि 'अब जमाना बदल गया है', या 'देखो मेरे तो दलित दोस्त भी हैं' और 'मेरे ग्लास में वो भी पानी पीते हैं..' सच को स्वीकर कीजिए और खुद से पूछिए जनाब ऐसे कैसे?
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