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कैमरा: शिव कुमार मौर्य
वीडियो एडिटर: आशुतोष भारद्वाज, विवेक गुप्ता
आपको कुछ समझ में आया क्या? हमें भी नहीं आया. ऊपर लिखी हुई पंक्तियां 5 अगस्त,2019 को दिल्ली में दर्ज हुए एक FIR से ली गई हैं. ऐसा लगता है कि वारदात तो हुई 2019 में लेकिन लिखी गई है 1819 में.
हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका डाली गई. गुजारिश की गई कि एफआईआर में उर्दू या फारसी के शब्दों का इस्तेमाल नहीं करने का निर्देश दें. इसी मामले की सुनाई करते हुए कोर्ट ने कहा-
जरा सोचिए, एक शख्स परेशानी में है. वो पुलिस के पास मदद के लिए पहुंचता है लेकिन उसे खुद समझ नहीं आता कि जो लिखा है, वो वही है जो वो कहना चाहता था. आखिर हम ऐसा क्यों कर रहे हैं? आज सबकुछ कंप्युटराइज्ड हो रहा है तो हम क्यों सरकारी भाषा के मामले में नहीं बदल रहे?और मामला सिर्फ FIR तक सीमित नहीं है. जमीन खरीद फरोख्त से जुड़े पेपर का एक नमूना देखिए.
इसे कैथी भाषा कहते हैं. इसे आप सरकारी बही खाते की भाषा कह सकते हैं. कई जगहों पर ये आज भी इस्तेमाल हो रही है.
अब आप जरा 11 अगस्त, 2019 मध्यप्रदेश महर्षि वाल्मीकि स्मृति पुरस्कार 2018-19 के लिए निकाले गए इस विज्ञापन को देखिए-
जनाब बस इतना कहना चाहते हैं पुरस्कार के लिए जो अप्लाई करे वो अपने काम के बारे में छपी रिपोर्ट की कॉपी भी साथ में भेजें.
वातानुकूलित शयनयान कक्ष
संविदा लिपिक
अधिशासी अभियंता
निविदा
इन जैसे न जाने कितने आसमानी शब्द आज भी सरकारी कामकाज में धड़ल्ले से इस्तेमाल होते हैं, बिना ये सोचे समझे कि आम बोलचाल में अब इन शब्दों का इस्तेमाल नहीं होता और लोगों को कुछ समझ नहीं आता. नतीजा ये कि सरकारी कामकाज से आम आदमी अलग-थलग महसूस करता है. उसे समझ नहीं आता कि चल क्या रहा है. वो कन्फ्यूजन में इधर से उधर भटकता है. बिचौलिए इसका फायदा उठाते हैं. पैसे ऐंठते हैं.
समय आ गया है कि बदलाव हो. जिस भाषा में हम बातचीत करते हैं, सरकारी कामकाज भी उसी में हो.
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