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हर साल ठंड आती है, पत्रकार कैमरा उठाते हैं, 4 रैन बसेरा जाते हैं और 8 लोगों से बात कर आते हैं. इसी पर खबर बन जाती है कि सरकार की लापरवाही, ठंड में ठिठुरते लोग और रैन बसेरा में नहीं है जरूरी इंतजाम. मैं ये नहीं कह रहा कि ये गलत है या पत्रकारों ने सच नहीं दिखाया. सबने अपने हिस्से का काम ईमानदारी से किया हो लेकिन हमें लगता है उस रैन बसेरा की हालत और वहां सोने वालों को समझने के लिए थोड़ा और गहराई में जाना चाहिए.
इसलिए हमने फैसला किया कि हम रैन बसेरों की हालत पर सिर्फ खबर ही नहीं बनाएंगे बल्कि वहां उन लोगों के साथ रैन बसेरे में पूरी रात रहेंगे. उन आम लोगों की तरह जमीन में, उसी कंबल को ओढ़कर वहां रह रहे लोगों की परेशानियों को समझेंगे और रैन बसेरा की हालत को जानने की कोशिश करेंगे. इसलिए हम भी निकल पड़े दिल्ली की सड़कों पर रैन बसेरा ढूंढने.
हमने रैन बसेरा की खोज निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन के पास से शुरू की. कुछ लोगों से पूछने के बाद हम दिल्ली के सराय काले खां इलाके में पहुंच गए. जहां हमें रैन बसेरा मिल गया. सराय काले खां में बने रैन बसेरा में करीब 150 लोगों के रुकने का इंतजाम है. जहां रुकने वालों को अपना पहचान पत्र दिखाना होता है, लेकिन कई लोग ऐसे भी होते हैं जिनके पास पहचान पत्र नहीं होता.
यहां के केयर टेकर से बात करने पर पता चला कि यहां ज्यादातर लोग नशे में होते हैं.
हमने भी सबकी तरह अपनी दरी जमीन पर बिछा दी, जब रैन बसेरा के दिए हुए कंबल को ओढ़कर सोने की कोशिश में कर रहे थे तब चूहे जाग चुके थे. छत से लेकर टेबल पर चूहों की फौज थी.
इसी बीच मेरी बात यहां रुकने वाले लोगों से शुरू हो गई. उसमें से एक मेरी तरह ही बिहार से था.
वहीं, प्रिंटिंग सेंटर पर काम करने वाले अजय बताते हैं, “मैं द्वारका के पास रहता हूं, लेकिन मेरा काम साउथ दिल्ली के इलाके में होता है. और मेट्रो का किराया इतना ज्यादा है कि उससे अगर अपने रूम पर रोज लौटेंगे तो पैसा ही नहीं बचेगा. ठंड बहुत है और सुबह सवेरे ड्यूटी पर जाना होता है, इसलिए यहां रुक गए. लेकिन यहां पहले दिन ही मोबाइल चोरी हो गया. ऊपर से गंदा कंबल और इन चूहों के बीच सोना पड़ता है. लेकिन बस ये सोच कर रुक जाते हैं पैसा बचाना है तो ये सब तो सहना ही पड़ेगा.”
रात गुजर रही थी, ठंड बढ़ती जा रही थी. पूरी रात मुझे नींद नहीं आई.
सुबह 6 बजे शौचालय के बाहर लंबी लाइन थी. क्योंकि 150 लोगों के लिए सिर्फ 4 शौचालय. इन सब मुश्किलों के बावजूद मैं भी बाकी लोगों की तरह अपने ऑफिस को निकल गया. लेकिन इस रात में एक बात समझ में आई मुझे कि अगर मैं इस 7 घंटे में इन लोगों के दर्द से रूबरू तो हो गया लेकिन अगर मैं ये कहूं कि मैं इनके दर्द और परेशानियों को पूरी तरह समझ गया हूं, तो ये कहना बेईमानी होगी. क्योंकि ये लोग सर्फ रात में सोने की ही नहीं बल्कि दिन में भी अपनी जिंदगी गुजारने के लिए जंग लड़ रहे होते हैं.
वीडियो एडीटर- पूर्णेन्दु प्रीतम
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