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मुहर्रम पूरी दुनिया में मनाया जाता है, लेकिन लखनऊ का मुहर्रम कुछ खास होता है. अवध के शिया शहंशाह और नवाबों ने 1838 में इसकी शुरुआत की थी, इसलिए यहां के मुहर्रम को शाही मुहर्रम भी कहा जाता है. ईरान जैसे शिया बहुल देशों में भी मुहर्रम के इतने इंतजाम नहीं होते जितने लखनऊ में किए जाते हैं.
लखनऊ के मुहर्रम की शाही परंपराओं को बनाए रखने के लिए अच्छी खासी तैयारी होती है. अपनी परम्पराओं को सहेजते हुये सौ साल से भी पुराने लखनऊ के मुहर्रम का रंग भी समय के साथ बदल रहा है. मुहर्रम के दिन आमतौर पर गैर मुस्लिम, उन इलाकों में जाना नही चाहते है जहां से मातम का जुलूस निकलता है, लेकिन लखनऊ के मुहर्रम ने इस धारणा को तोड़ दिया है.
लखनऊ के हिन्दू भी मुहर्रम के कई कार्यक्रम में शामिल होते हैं. खास बात यह भी है कि अब लखनऊ का मोहर्रम देखने के लिये देश के दूसरे हिस्सों से भी लोग यहां आने लगें हैं. लखनऊ के शिया मुसलमानों का कहना है कि यहां के मुसलमान दूसरे त्योहारों पर भले ही घर न आयें, लेकिन मुहर्रम पर जरूर घर आते हैं.
मुहर्रम की 10 वीं तारीख यानी की 1 अक्टूबर, सबसे खास होता है. इस दिन हजारों की संख्या में लोग जुलूस की शक्ल में निकलते हैं. मातम का ऐसा रूप कम ही लोगों ने देखा होगा. खुद को दर्द देने की कोई भी कोशिश नहीं छोड़ी जाती. शरीर पर कोड़े मारना. जंजीरों से शरीर को घायल करने वालों की खास इज्जत होती है.
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