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अच्छी कहानियां किसे नहीं पसंद. दास्तानगोई का नाम सुना होगा. दास्तानगोई फारसी के दो शब्दों से मिलकर बना है दास्तां (कहानी) और गोई (सुनाना). ये तेरहवीं शताब्दी में उपजी कहानियां सुनाने- कहने की एक कला है.
सभी मध्ययुगीन रोमांस की तरह, परंपरागत दास्तानों में दर्जनों हीरो की कहानियां अक्सर जादुई दुनिया से होकर गुजरती है. एक दास्तान जिसका भारत में हमेशा बोलबाला रहा है वो है दास्तान -ए -अमीर हम्जा. इसके नायक अमीर हम्जा का विस्तृत उल्लेख सम्राट अकबर के हम्जा-नामा में मिलता है जिसे पढ़कर ऐसा लगता है जैसे अकबर खुद भी इन दास्तानों को पसंद करता था और हरम में अपनी बेगमों को सुनाया करता था.
हालांकि, इसके रूप भी बदले. लेकिन द क्विंट आपके लिए लाया है डिजिटल दास्तानगोई- किस्सा-ए-कंसेंट. जो बता रहा है कि ना का मतलब सिर्फ ना होता है. ना यानी कि इनकार.
दरअसल, हमारे यहां अगर मैरिटल रेप क्राइम हो जाए तो अगले दिन हमारे यहां के सारे मर्द जेल के पीछे हो जाएं. क्योंकि मर्दों को ना सुनना पसंद नहीं होता. औरतों की चुप्पी को उसके साथ सेक्शुअल रिलेशन बनाने की सहमति मान ली जाती है. और अगर औरतें ना कर दें तो भी ये मान लिया जाता है कि ‘ना’ के पर्दों में भी ‘हां’ छिपी होती है.
दूसरी तरफ इसी समाज में ‘हां’ कहने वाली औरत बुरी समझी जाती है. इसलिए मान लिया जाता है कि वो खुद को अच्छा साबित करने के लिए ना..ना करती हैं. और फिर उस साॅफ्ट ना में भी हां ढूंढ ली जाती है.
यानी औरतों के लिए कहीं से भी इनकार की कोई गुंजाईश नहीं है.
तो क्या अब ना वैसे बोलना होगा जैसे अखंड कीर्तन होता है नाॅनस्टाॅप. जैसे मस्जिद में नमाज दी जाती है 5 वक्त. यानी ना की तकरार होनी चाहिए, उसका प्रचार होना चाहिए, प्रसार होना चाहिए. इनकार सरे-बाजार होना चाहिए.
वरना इस ना को भी हां ही समझ लिया जाएगा.
कैमरापर्सन: अतहर राथर
कैमरा सहायक: शिव कुमार
वीडियो एडिटर: कुणाल मेहरा
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