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राहत पैकेज पार्ट 1: ‘सरकारी खर्च बहुत कम, टैक्स घटा नहीं, टला है’

रथिन रॉय ने कहा कि आर्थिक राहत पैकेज का पहला पार्ट देखकर लगा कि सरकारी खजाने से पैसा बहुत कम खर्च होने वाला है

संजय पुगलिया
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क्विंट के एडिटोरियल डायरेक्टर संजय पुगलिया और  देश के बड़े अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी के डायरेक्टर रथिन रॉय
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क्विंट के एडिटोरियल डायरेक्टर संजय पुगलिया और देश के बड़े अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी के डायरेक्टर रथिन रॉय
(Photo: Altered by Quint Hindi)

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कोरोना और लॉकडाउन से लॉक हो गए देश और इकनॉमी को खोलने के लिए पीएम ने 20 लाख करोड़ के राहत पैकेज का ऐलान किया. उसकी पहले पार्ट का 13 मई को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने खुलासा किया. इसमें वित्त मंत्री ने छोटे उद्यमी, नौकरी पेशा लोगों, रियल स्टेट और बैंकिंग सेक्टर के लिए ऐलान किए.

लेकिन असर में किसको क्या मिला? सरकार में असल में कितना पैसा खर्च कर रही है और इससे क्या फायदा होगा, ये समझने के लिए क्विंट के एडिटोरियल डायरेक्टर संजय पुगलिया ने देश के बड़े अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी के डायरेक्टर रथिन रॉय से बात की.

रथिन रॉय ने कहा कि आर्थिक राहत पैकेज का पहला पार्ट देखकर लगा कि सरकारी खजाने से पैसा बहुत कम खर्च होने वाला है. पैकेज के पहले पार्ट की वैल्यू 6 लाख 40 हजार करोड़ के आसपास है, लेकिन असल में सरकार 14 हजार ही करोड़ खर्च कर रही है.

सरकार MSME को पैसे नहीं दे रही, लोन का रास्ता खोल रही है. आम आदमी को कोई पैसे नहीं दे रही, उसी का पैसा उसके पास थोड़े दिन के लिए छोड़ रही है.
रथिन रॉय, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी
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MSME को कितना फायदा?

आजकल वित्त मंत्रालय में अर्थशास्त्र कम है, इसलिए ज्यादा प्राशसनिक सुधार होते हैं. MSME की परिभाषा बदलने को भी इसी तरह से देख सकते हैं. छोटे उद्यमियों को लोन की सुविधा देने की बात तो कही गई है लेकिन ये तो बैंकों पर निर्भर करता है कि वो लोन देंगे या नहीं. जबकि सरकार ये कर सकती थी कि कर्मचारियों के वेतन में मदद कर सकती थी, ब्याज में कमी कर सकती थी. उद्यमी ये सोचेगा कि कारोबार चल नहीं रहा है तो कर्ज लेने के बाद मैं चुकाउंगा कहां से? लोन पर गारंटी के कारण NPA बढ़ सकता है और हमारी रेटिंग घट सकती है.

(ग्राफिक्स: क्विंट हिंदी)

टैक्स में फायदा मिला या नहीं?

टैक्स को लेकर जो ऐलान किए गए हैं वो भी प्रशासनिक फेरबदल हैं. TDS/TCS में भी जो राहत दी गई है कि वो फौरी राहत है लेकिन बाद में तो देना ही पड़ेगा. कुछ दिन के लिए लोगों की टेक होम सैलरी कुछ ज्यादा होगी लेकिन कल को तो टैक्स चुकाना ही होगा. दूसरी बात ये है कि चूंकि आने वाले महीनों में लोगों की आमदनी कितनी होगी, इसका अंदाजा लगाना अभी मुश्किल है तो सरकार ने सिर्फ ये सुविधा दे दी है कि आप थोड़ा कम टैक्स कटवा लीजिए. इसका मतलब ये नहीं है कि टैक्स कम हुआ, इसका मतलब ये हुआ कि ये आगे देना होगा.

(ग्राफिक्स: क्विंट हिंदी)

सरकार के कदमों से क्या इकनॉमी बचेगी?

इस सवाल का जवाब दिसंबर तक मिलेगा. स्वास्थ्य संबंधित जो चीजें हम बना रहे हैं उससे इकनॉमी को फायदा मिल सकता है. अगर रबी फसल बेच पाए और खरीफ की फसल ठीक हो जाए तो कृषि क्षेत्र बच जाएगा. इससे प्रवासी मजदूर बच जाएंगे, किसान बच जाएंगे. इससे इकनॉमी को फायदा होगा. संगठित और बड़े उद्योगों के लिए कुछ ठोस हुआ तो इससे भी इकनॉमी को बचाया जा सकता है. सर्विस सेक्टर के लिए सरकार क्या करती है, इसपर भी निर्भर करेगा कि अर्थव्यवस्था डूबती है या बचती है. क्योंकि इससे लोगों की जिंदगी पर बड़ा असर पड़ेगा.

जैसे रामलीला में शुरुआत बोरिंग होती है और क्लाईमैक्स में असल बात आती है, उसी तरह उम्मीद है कि पैकेज के आगे के हिस्सों में आम आदमी को सीधा फायदा देने की बात हो.
रथिन रॉय, अर्थशास्त्री

आत्मनिर्भर भारत का अभियान-कितनी हकीकत, कितना फसाना?

फिलहाल ये एक आशा है, इसके लिए अभी रणनीति आनी बाकी है. अगर हम दस पंद्रह करोड़ लोगों की जरूरत की चीजों को बनाकर आत्मनिर्भर बनना चाहते हैं तो ये नहीं हो पाएगा. अपने यहां टीवी, लिपिस्टिक बनाने से काम नहीं चलेगा.देश की ज्यादातर आबादी का ख्याल रखना होगा. गरीब आबादी के इस्तेमाल की चीजें यहीं बनानी होंगी. स्वास्थ्य सेवाएं ठीक हों. शिक्षा बेहतर हो. स्लम फ्री इंडिया करेंगे तो फिर हम आत्मनिर्भर भारत की तरफ बढ़ेंगे. ऐसी व्यवस्था जिसमें लोग अपनी कमाई से शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं ले सकें तो बनेगा आत्मनिर्भर भारत.

(ग्राफिक्स: क्विंट हिंदी)

सरकार के एजेंडे में गरीब कहां?

हर साल लाखों लोग साउथ और वेस्ट इंडिया में रोजगार के लिए जाते हैं. लेकिन हमने इनकी ओर कभी नहीं देखा. लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों का चेहरा हमें दिखा. जब तक यूपी, बिहार, जैसे राज्यों में उद्योग शुरू नहीं करेंगे, जब तक वहां रोजगार के अवसर नहीं पैदा होंगे, जब तक वहां आने वाली पीढ़ियों के लिए अच्छे भविष्य को पक्का नहीं करेंगे तब तक ये कलंक हटेगा नहीं, पलायन रुकेगा नहीं. सिर्फ पैसा नहीं, उन्हें अच्छा सामाजिक माहौल भी चाहिए. क्योंकि लोग सिर्फ आमदनी के लिए पलायन नहीं करते, बल्कि सामाजिक दिक्कतों के कारण भी पलायन करते हैं. एक राष्ट्र के तौर पर हमें ये सोचना होगा. मेक इन इंडिया की चर्चा में असल मुद्दा चीन बनाम भारत नहीं है. असली लोकल तो तब होगा जब हम गरीब, वंचित भारतीयों के लिए उनके इलाके में चीजें बनाएं.

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Published: 13 May 2020,11:54 PM IST

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