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'छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाके...'
14वीं शताब्दी में हजरत आमिर खुसरो और सूफी चिश्ती ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के मिलने की दास्तान के बाद ये नज्म बनी. लेकिन इसे आज भी उसी अंदाज के साथ लोग याद करते हैं. ज्यादातर इसका इस्तेमाल कव्वाली में किया जाता है, पूरी दुनिया में लोग इसके दीवाने हैं.
बॉलीवुड में आज भी इन नज्मों के शेर या पूरी नज्म को गाने में उतारा जाता है. यही वजह है कि आज हम कई पुराने सूफी संगीत को बॉलीवुड गानों में सुनते हैं.
इसी सिलसिले में हमारी मुलाकात हुई ध्रुव सांगरी (बिलाल चिश्ती) से हुई, जो कि एक सूफी गायक हैं. वो बताते हैं:
ध्रुव सांगरी का सूफी सफर भी काफी अलग है. उन्होंने संगीत के दिग्गज नुसरत फतेह अली खान से संगीत की शिक्षा ली. ध्रुव ने 7 साल की उम्र से ही संगीत की शिक्षा लेनी शुरू कर दी थी. बचपन से ध्रुव का कव्वाली के प्रति आकर्षण था, जो बाद में उनका करियर बन गया.
ध्रुव ने कहा, ''कई लोग सूफी को गलत तरीके से समझते हैं. अल्लाह, अली, मौला का जिक्र अगर गाने में आता है, तो इसका मतलब ये नहीं कि वो सूफी गाना है. हमें इसकी आदत लग गई है. कभी क्लब में कहीं किसी इवेंट में सूफी नाइट होती है, लेकिन वो सही मायने में सूफी नहीं है.''
कव्वाली में और सूफी संगीत में किसी धर्म की बात नहीं है, ये सभी के लिए है. ऐसा कहना है ध्रुव सांगरी का. ध्रुव आगे बताते हैं, ''इसमें प्रेम की बात है, और ये सब को जोड़कर रखने की बात कहता है. इसी सोच के साथ बना है सांझी विरासत.''
कव्वाली को 'जैज ऑफ ईस्ट ' भी कहा जाता है. ध्रुव बताते हैं कि जैज संगीत का मतलब है स्वतंत्र, आविष्कार, मुक्ति. शायद यही वजह है कि कव्वाली इतने बड़े स्तर पर दुनियाभर में मशहूर है. दूसरे धर्म के लोग भी इसे उतनी ही उत्सुकता से सुनते हैं. जो लोग इसकी भाषा भी नहीं समझते, वो भी इसे सुनकर झूमने लगते हैं.
'सूफी संगीत में कई परतें हैं, शरीयत, तरीकत, हकीकत, मारिफत, फना, बकाह. ये परतें हैं अहंकार की, जिनकी मौत प्राकृतिक रूप से ही संभव है. जब इंसान इन सब से स्वतंत्र होता है, तभी वो दिव्य शक्ति को महसूस कर पाता है'.
कैमरा: अथर राथर
कैमरा असिस्टेंट: शिव कुमार मौर्य
वीडियो एडिटर: प्रशांत चौहान और आशीष
प्रोड्यूसर: हर्षिता मुरारका
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