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वीडियो एडिटर- अभिषेक शर्मा
कैमरा- शिव कुमार मौर्या
“20 साल बाद अदालत से बरी हुए 122 लोग, सिमी सदस्य होने का था आरोप”
“2 acquitted after 11-year trial in terror case”
“पुलिस टॉर्चर, 4 साल जेल, 11 साल कानूनी लड़ाई, फिर मिला ‘आधा इंसाफ’ “
ये वो हेडलाइन हैं जो ज्यादातर अखबारों और न्यूज चैनल पर या तो आप को दिखाया नहीं जातीं या ऐसे कोने में छपती हैं कि नजर ही न पड़े. दरअसल ये बातें हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि करीब 20 साल पहले बैन संगठन SIMI से जुड़े होने के आरोप में 127 लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार किया था, 20 साल तक बदनामी, तक्लीफ, कानूनी लड़ाई, मीडिया ट्रायल हुआ और अब जाकर मिला है 'इंसाफ'. ये तो सिर्फ एक कहानी है लेकिन पुलिस, प्रशासन, सरकार और मीडिया के झूठ की सजा हजारों बेगुनाह लोग भुगत रहे हैं, इसलिए हम पूछ रहे हैं जनाब ऐसे कैसे?
गुजरात में सूरत के एक कोर्ट ने Unlawful Activities (Prevention) Act (UAPA) मतलब UAPA के तहत 20 साल पुराने मामले में आरोपी बनाए गए 122 लोगों को बरी कर दिया है.
इन लोगों पर दिसंबर, 2001 में प्रतिबंधित संगठन "स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (SIMI)" की एक बैठक में हिस्सा लेने का आरोप था. बिना किसी गुनाह के एक साल जेल में बिताया फिर 19 साल तक कानूनी लड़ाई लड़ते रहे और अब जाकर अदालत ने उन्हें 'आजाद' कर दिया है.
जब इन लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार किया था तब दावा किया था कि मौके से SIMI में शामिल होने के लिए फॉर्म, ओसामा बिन लादेन की तारीफ में किताबें और बैनर जैसे चीजें बरामद की गई थीं. सोचिए क्या कहानी बनाई गई थी. पढ़िए क्या कहते हैं बरी होने के बाद जियाउद्दीन सिद्दीकी
लेकिन ये अकेला मामला नहीं है जहां इंसाफ के लिए सालों साल लड़ना पड़ा.
अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश के जिला ललितपुर के रहने वाले 43 साल के विष्णु तिवारी 20 साल बाद बरी हुए हैं. विष्णु की जिंदगी के पिछले 20 साल आगरा की जेल में गुजरे. विष्णु तिवारी को 16 सितंबर 2000 को दुष्कर्म के आरोप में गिरफ्तार किया गया था लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश के बाद विष्णु 3 मार्च को बाइज्जत बरी हो गए.
इन सब के बीच पुलिस के कामकाज के तरीके, प्रोफेशनलिजम, ईमानदारी भी कटघरे में है. इसे समझने के लिए कुछ केस से आपको रूबरू कराते हैं.
यही नहीं राजस्थान हाई कोर्ट ने भी इस मामले पर हैरानी जताया और शहबाज को रिहा कर दिया. जस्टिस पंकज भंडारी की सिंगल बेंच ने इस इस मामले में शहबाज को जमानत देते हुए कहा कि पुलिस ने 9वें केस में उस पर उन 12 सालों में मुकदमा नहीं किया, जो उसने जेल में बिताए थे. कमाल देखिए जब जज सवाल कर रहे थे तब सरकारी वकील को इस बात की जानकारी भी नहीं थी.
अब्दुल वहीद की कहानी भी कम डरावनी नहीं है, अब्दुल वाहिद शेख ने जेल में 9 साल बिताए, अब्दुल वहीद को 2006 में मुंबई में ट्रेन धमाकों के लिए 'आतंकवादी' कहा गया था, जिसमें 209 लोग मारे गए और 700 से ज्यादा लोग घायल हुए थे. लेकिन आखिर में अब्दुल वहीद अपना वक्त हार कर, केस जीत गए.
क्विंट ने 2017 में इरशाद आलम की कहानी दिखाई थी. अवैध गिरफ्तारी, टॉर्चर, पुलिस इन्फॉर्मर, आतंकी का ठप्पा, चार साल की जेल और 11 साल की कानूनी लड़ाई के बाद 22 दिसम्बर, 2016 को दिल्ली के ट्रायल कोर्ट ने इरशाद अली को बा-इज्जत बरी कर दिया था. लेकिन इरशाद के साथ क्या हुआ था वो भी सुनिए
इन सबके लिए देश के अदालतों का हाल भी जानना जरूरी है. पुलिस और मीडिया के साथ-साथ सिस्टम की नाकामी की भी लंबी लिस्ट है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक, देशभर में करीब 1400 जेलों में 4 लाख 78 हजार कैदी हैं, जिसमें करीब 70 फीसदी अंडर ट्रायल हैं और सिर्फ 30 फीसदी ही दोषी हैं.
अदालतों में केस की बात करें तो National Judicial Data Grid के मुताबिक करीब 2 करोड़ 75 लाख क्रिमिनल केस देश में अब भी पेंडिंग हैं. राज्यसभा में एक प्रश्न के उत्तर में, मंत्री रविशंकर प्रसाद ने 22 सितंबर 2020 को कहा था कि -
तो जांच एजेंसियों, अदालत की हालत ऐसी है कल को मैं आपको किसी और जियाउद्दीन या विष्णु की कहानी सुना रहा हूंगा. देर सबेर इन्हें अदालत रिहा कर देगी लेकिन तब तक मीडिया ट्रायल में इनकी जिंदगी, घर बार को फांसी चढ़ा दिया जाएगा. सवाल ये है कि किसी बेगुनाह के साथ गुनाह करने वाले लोगों को सजा क्यों नहीं दी जाती? बेगुनाहों को गुनहगार बता देंगे. इंसाफ करने 20-20 साल लगा देंगे तो हम तो पूछेंगे जनाब ऐसे कैसे
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