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हमारे देश में रेप सर्वाइवर्स को एक असंवेदनशील न्यायिक व्यवस्था से निपटना पड़ता है. एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, 2011 में 24,206 बलात्कार के केस रिपोर्ट किए गए थे, यानी लगभग हर 20 मिनट में 1 बलात्कार. इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात ये है कि बलात्कार के बहुत सारे मामले रिपोर्ट ही नहीं किए जाते.
पुलिस का अनुमान है कि भारतीय समाज के गहरे जड़ वाले रूढ़िवाद की वजह से 10 में से सिर्फ 4 बलात्कार रिपोर्ट किए जाते हैं. कई पीड़ित अपने परिवार और समुदाय की ओर से "शर्मिंदा" किए जाने के डर की वजह से आगे आने से डरते हैं.
जो लोग पुलिस तक पहुंच पाते हैं, उन्हें असंवेदनशील व्यवहार करने वाले पुलिस, काउंसलिंग और साथ की कमी महसूस होती है. साथ ही कमजोर जांच, अजीबो-गरीब सवाल-जवाब जैसी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है.
रेप के अलग-अलग मामलों में वकीलों ने रेप पीड़ितों से जो सवाल पूछे हैं और जिस तरह से पूछे हैं, उसमें संवेदना तो छोड़िए रेप के जख्मों को फिर से कुरेदने की कोशिश ज्यादा लगती है. विक्टिम शेमिंग की जाती है.
रेप ट्रायल के दौरान रेप पीड़िता की सेक्शुअल हिस्ट्री को भी कोर्ट रूम में जग जाहिर किया जाता है. उनके कपड़ों पर सवाल उठाया जाता है.
दुर्भाग्य से, कोर्ट भी समाज में महिलाओं से होनेवाले भेदभाव का आईना ही मालूम पड़ते हैं.
जस्टिस वर्मा कमेटी ने इस भेदभाव को खत्म करने के लिए चुनाव, पुलिस और शैक्षिक सुधारों की सिफारिश की है. क्या वो लागू किए जाएंगे?
वीडियो एडिटर: कुणाल मेहरा
कैमरपर्सन: अभय शर्मा
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