Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Videos Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019 जुनैद: भीड़ के ‘अंधे कानून’ का शिकार

जुनैद: भीड़ के ‘अंधे कानून’ का शिकार

रमजान के दौरान छुट्टियों में जुनैद घर आया था और गांव में उसने कुरान पढ़कर सुनाई थी.

अभिनव भट्ट
वीडियो
Updated:
22जून, 2017 को 16 साल के जुनैद की ट्रेन में हत्या कर दी गई थी
i
22जून, 2017 को 16 साल के जुनैद की ट्रेन में हत्या कर दी गई थी
(फोटो: द क्विंट)

advertisement

बल्लभगढ़ के असावटी गांव के रहने वाले हाफिज जुनैद की 22 जून 2017 को पीट-पीटकर हत्या कर दी गई थी. 16 साल के जुनैद को ट्रेन में सीट विवाद को लेकर अपनी जान गंवानी पड़ी. मौत से कुछ दिन पहले ही जुनैद के नाम के आगे 'हाफिज' लगा था. पूरी कुरान को याद कर लेने वाले को हाफिज कहा जाता है. ये हाफिज बनने की खुशी ही थी कि जुनैद अपने भाई हासिम और दो दोस्तों के साथ दिल्ली में सदर बाजार खरीदारी के लिए गया था. लेकिन लौटते वक्त ट्रेन की 'भीड़' में जिंदगी की कीमत इतनी सस्ती हो जाएगी इस बात का जुनैद और उसके भाई को जरा भी अंदाजा नहीं था.

बतौर रिपोर्टर मैंने जुनैद के उस आखिरी सफर को फिर से 'देखना' चाहा. इससे पहले भी मैं कई बार सदर बाजार जा चुका था, वो सदर बाजार जो ईद और दीवाली पर गुलजार रहता है. लेकिन इस बार न ईद थी न दीवाली, जहन में था बस ये जानना कि आखिर उस दिन आखिर जुनैद से क्या 'गलती' हो गई.

तमाम सवालों को साथ लिए मैंने भी सदर बाजार स्टेशन से उसी ईएमयू को पकड़ा जिसमें 22 जून को जुनैद अपने भाई और दोस्तों के साथ घर लौट रहा था. भीड़ कम थी तो मैं आसानी से ट्रेन में चढ़ गया और सीट भी मिल गई.

मैंने अपने आसपास बैठे लोगों से बातचीत शुरू की. पूरी कोशिश थी कि मेरे अंदर का पत्रकार बाहर न निकले. लेकिन जिन सवालों के जवाब ढूंढ रहा था उससे खुद को छुपाना काफी मुश्किल था. लोगों ने पूछ ही लिया कौन सी मीडिया से हो? ऐसे में झिझकर हटाने के लिए मैं सीट छोड़कर लोगों से बात करने लगा.

जैसे-जैसे स्टेशन आते गए, ट्रेन में भीड़ बढ़ती गई. जहां एक सीट पर तीन लोग बैठे थे वहां अब चौथे ने भी अपनी जगह बना ली थी. जहां कोई मना करता वहां बहस हो जाती.

ओखला स्टेशन पहुंचते ही ट्रेन में भीड़ इतनी हो गई कि पैर रखने भर की जगह न रही. ट्रेन के बाहर से अब भी लोग अंदर घुसने की कोशिश कर रहे थे और अंदर से धक्का मुक्की हो जाती थी.

हर रोज उसी ट्रेन से सफर करने वालों ने बताया कि ये कोई नई बात नहीं है. यहां छोटी-छोटी बातों पर गाली-गलौच आम है. मैं सोच रहा था कि कुछ ऐसा ही जुनैद और उसके भाई के साथ भी हुआ होगा.

लेकिन एक सवाल जो बार बार चुभ रहा था कि जरा सी धक्का मुक्की और बहस हत्या तक पहुंच जाएगी ये कैसे संभव है?

मैंने ऐसे लोगों को ढूंढना शुरू किया जो रोजाना ईएमयू में सफर करते थे. दरअसल, मेरी कोशिश तो 22 जून की घटना के चश्मदीद को ढूंढने की थी. लोगों खबरों की वजह से जानते थे कि हत्या हुई है लेकिन कोई खुलकर बात नहीं कर रहा था.

इसी बीच, मेरी नजर एक लड़के पर पड़ी. वो ट्रेन के दरवाजे के पास खड़ा था. उसे पता था कि मैं यात्रियों से जुनैद को लेकर सवाल जवाब कर रहा हूं. मैंने भी उससे पूछ लिया कि तुम्हें उस घटना के बारे में क्या पता है?

शुरुआत में तो वो हिचकिचाया, लेकिन बातचीत के दौरान उसने बता ही दिया कि वो घटना के दिन उस ट्रेन के कोच में था जिसमें जुनैद पर हमला किया गया था. हालांकि, उसने ये भी साफ किया कि वो कोच में दूसरी तरफ था और भीड़ की वजह से कुछ देख नहीं पाया.

नाम न बताने की शर्त पर उसने कहा-

ये लड़ाई पीछे से चली आ रही थी. बहस हो रही थी और हाथापाई भी हुई. लेकिन बल्लभगढ़ के बाद चाकू मार दिया. 

जब मैंने पूछा कि इतने लोगों के बाद भी कोई बचाने क्यों नहीं आया? तुम्हें नहीं लगा कि उसे बचाना चाहिए? उसका जवाब सीधा था

ये ही तो दिक्कत है भाई, सब डरते हैं. कोई किसी से मतलब नहीं रखता. जब उन लोगों ने जुनैद को मार दिया तो हमें मारने में क्यों हिचकिचाएंगे. मैं तो छोटा था, आस पास और भी लोग थे कोई बचाने नहीं गया. मैं कैसे जाता.

इसके जवाब के बाद मेरे पास उस लड़के से पूछने के लिए कुछ नहीं बचा था. मैंने और लोगों से भी ये ही सवाल पूछा कि जब लोग मार रहे थे तो कोई बचाने क्यों नहीं गया. किसी ने ट्रेन की चेन खींचकर उसे रोकने या पुलिस को बुलाने की कोशिश क्यों नहीं की?

मेरे सवाल और लोगों की चुप्पी ये बयां कर रही थी कि कोई किसी के मामले में दखल नहीं देना चाहते हैं. किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता.

अच्छे काम के लिए भीड़ जुटाना बहुत मुश्किल है लेकिन गलत काम के लिए जरा भी नहीं. जाति, धर्म और इंसाफ, इन मुद्दों पर सबके पास काफी कुछ बोलने के लिए है. लेकिन सच बोलने के लिए कोई सामने नहीं आता. जिन लोगों ने इस हत्या को होते देखा और चुप रहे. क्या वो न बोलने के इस सच के बोझ को जिंदगी भर उठा पाएंगे?

बल्लभगढ़ से हम अब असवाटी स्टेशन पहुंच चुके थे. ये वही स्टेशन है जहां जुनैद और उसके भाइयों पर चाकुओं से वार कर उन्हें ट्रेन से उतार दिया गया था.

22 जून को यहां भीड़ थी, लेकिन मैं जब वहां पहुंचा तो स्टेशन पर कोई नहीं दिखा. कुछ लोग ट्रेन से उतरे और अपने अपने घरों को चले गए. मैं चार नंबर प्लेटफॉर्म में उस जगह गया जहां जुनैद को मारकर फेंक दिया था.

मैंने स्टेशन मास्टर से लेकर रेलवे के दूसरे कर्मचारियों सबसे बात की लेकिन कोई कुछ बोलने के लिए तैयार नहीं था. सबका एक ही जवाब था. हम उस दिन शिफ्ट में नहीं थे.

यहां से मैं और मेरी टीम जुनैद के गांव खंदावली के लिए निकल पड़े. गांव पहुंचा तो जुनैद के पिता लोगों के बीच बैठे हुए थे. हासिम और जुनैद सफर में साथ थे इसलिए उससे मैंने कई सवाल किए. हर एक चीज़ पर काउंटर सवाल किए.

जैसे आप बेटे हैं वैसे मेरा भी बेटा था, आपका चेहरा देखकर मुझे मेरे बेटे की याद आती है 
जुनैद की मां

गांव से निकलने से पहले जुनैद की मां के इन शब्दों ने मुझे निशब्द कर दिया.

  • रिपोर्ट: अभिनव भट्ट
  • कैमरा: अभय शर्मा\त्रिदीप के मंडल
  • एडिटर: राहुल सांपुई
  • प्रोड्यूसर: त्रिदीप के मंडल
  • एक्टर: कनिष्क दांगी, सौरभ आनंद, सारांश थापन, राहुल सांपुई

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: 12 Jul 2017,08:01 PM IST

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT