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जरा सोचिए, आपके शहर में कोई नया रेस्तरां खुला है. लोगों की लंबी लाइनें लगी हैं. एक भी सीट खाली नहीं है. करीब एक महीने की मशक्कत के बाद आपको बुकिंग मिलती है. आप अपना मनपसंद डिश ऑर्डर करते हैं, लेकिन इतने ताम-झाम के बाद भी आपको मजा नहीं आता है. आपको लगता है कि घर पर पड़ा नूडल ही ठीक था. ऐसा ही कुछ आसमान भारद्वाज (Aasmaan Bhardwaj) की फिल्म कुत्ते (Kuttey) को देखकर महसूस होता है.
मैंने कोशिश की है कि कुत्ते फिल्म की तुलना विशाल भारद्वाज के सिनेमा से न करूं, बहुत हद तक इसमें सफल भी रही, बस एक चीज को छोड़कर. विशाल भारद्वाज कि फिल्म इस बात का उदाहरण हैं कि कैसे महिलाओं को केंद्र में रखकर फिल्में बनाई जाती हैं. लेकिन कुत्ते, महिलाओं के बारे में बिना ज्यादा सोचे-समझे बनाई गई फिल्म का उदाहरण है.
एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी (तब्बू), नक्सली लक्ष्मी (कोंकणा सेन शर्मा), और एक रसूखदार आदमी की बेटी लवली (राधिका मदान) के किरदार पहली नजर में अच्छी तरह से लिखे गए हैं. लेकिन बाद में महिला किरदारों को पूरी फिल्म में पुरुषों की नजर से दिखाया गया है.
सिनेमैटोग्राफर फरहाद अहमद देहलवी (Farhad Ahmed Dehlvi) ने हर सीन को वो तवज्जो दी है, जिसका वह हकदार है. उन्होंने अपने अनूठे अंदाज में महाराष्ट्र में जुर्म की दुनिया को दिखाने की कोशिश की है. जिसे हम 'कमीने' में पहले भी देख चुके हैं.
अब फिल्म की कहानी की बात करते हैं. कुत्ते की नैरेटिव स्टाइल पर गहरी पकड़ है, लेकिन इसको सपोर्ट करने के लिए फिल्म में बहुत अधिक चीजें नहीं हैं. फिल्म का पहला भाग खींचा हुआ महसूस होता जो कि बहुत हद तक फिल्म के नामी कलाकारों पर टिका है. वहीं दूसरा भाग अधिक मनोरंजक और मजेदार है.
एक्टिंग के मामले में नसीरुद्दीन शाह के सामने कोई नहीं टिकता. वहीं महिला कलाकारों ने भी अपने अभिनय से छाप छोड़ी है. राधिका मदान अपनी भूमिका में चमकती हैं और अधिक स्क्रीन टाइम की हकदार हैं. इनके अलावा फिल्म में अर्जुन कपूर, कुमुद मिश्रा और शार्दुल भारद्वाज भी हैं.
'कुत्ते' को देखकर लगता है कि यह फीचर फिल्म के लिहाज से बहुत लंबी है. इसकी कहानी भी कमजोर है. अन्य क्राइम फिल्मों की तरह यह भी खून-खराबा, मार-काट, गाली-गलौज से भरी हुई है. ट्रेलर को देखकर जितनी उम्मीदें थी, यह फिल्म उसपर खरी नहीं उतरती है.
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