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भारत ने अब तक 14 प्रधानमंत्री देखे हैं...गुलजारी लाल नंदा को छोड़कर जो दो बार कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे. जल्दी से आपको इनके नाम याद दिला देते हैं- जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, राजीव गांधी, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, नरसिम्हा राव, एचडी देवगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी.
सिर्फ एक शख्स ऐसा करने में कामयाब हो पाया है. इंदिरा गांधी! जिन्होंने संसद में विपक्ष की नेता के बाद दोबारा प्रधानमंत्री के तौर पर वापसी की थी. (हालांकि तकनीकी तौर पर वाजपेयी भी इसी कैटेगरी में आते हैं, क्योंकि वो 1996 में 13 दिनों के लिए प्रधानमंत्री रहे फिर विपक्ष के नेता बने फिर 1998 से 2004 तक लगातार प्रधानमंत्री रहे). इतना कुछ पता लगने के बाद अब मेरी उत्सुकता और बढ़ गई. मैं ये देखकर हैरान रह गया कि ब्रिटेन का भी हाल भारत की तरह है.
ब्रिटेन में पिछले 80 साल में सिर्फ दो प्रधानमंत्री ही ऐसे हुए हैं जिन्होंने हारकर प्रधानमंत्री पद गंवाया और विपक्ष के नेता बने, लेकिन चुनाव में जीतकर दोबारा प्रधानमंत्री पद पर काबिज हुए. विंस्टन चर्चिल और हेराल्ड विल्सन. इनमें विंस्टन चर्चिल ज्यादा मशहूर हुए.
तो 2019 के महाभारत से पहले ये ‘आकाशवाणी’ दो योद्धाओं के लिए लिए है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विपक्ष में बैठे राहुल गांधी. वो राजनेता जो प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए भी विपक्ष में बैठे नेता का डीएनए बरकरार रख सके, उसे कभी प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी.
जैसे ही विपक्ष में बैठा नेता प्रधानमंत्री बनता है, नौकरशाह उसे घेर लेते हैं. प्रधानमंत्री, पेशेवर और आजादख्याल लोगों की पहुंच से दूर हो जाता है. वो रायसिना हिल से बंध जाता है. उसे इतनी चीजों का ख्याल रखना पड़ता है, परंपराएं निभानी पड़ती हैं जिनमें काफी वक्त जाता है. पीएम को दिखाई देने और काम के बीच भ्रम हो जाता है. उसे तालियां, समर्थन की तरह लग सकती हैं.
नेता विपक्ष, आलोचकों से मिलना पसंद करता है क्योंकि ज्यादातर हमले उसके विरोधियों पर ही किए जाते हैं. वो सियासी मुश्किलों से जूझने के नए तरीके ढूंढ़ता है. वो खुद संपादकीय और बाकी लेख पढ़ता है. ये पीएम के उलट है जिन्हें पढ़ने के लिए एक लिस्ट बनाकर देदी जाती है.
नेता विपक्ष कमर्शियल विमान में उड़ान भरता है. वो ट्रैफिक जाम से होकर भी गुजरता है. वो तमाम कमियों से भरी असल दुनिया में रहता है. जबकि प्रधानमंत्री एक आराम भरे खोल में रहते हैं. उनमें, मुश्किलों को पहचानकर, उनके बीच जाकर उन्हें सुलझाने की क्षमता कम हो जाती है.
साथी नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए नेता विपक्ष अक्सर एक ‘दोस्त’ की तरह होता है. वो एक ऐसे सेनापति की तरह है जिसका अपनी फौज से अच्छा रिश्ता होता है क्योंकि वो जानता है कि उन्हीं की मदद से उसे बड़ी लड़ाई जीतनी है. लेकिन, प्रधानमंत्री कई घेरों से घिरे रहते हैं. इससे भी बुरा ये कि पीएम को लगने लगता है कि सरकार की मशीनरी और ताकतें उनके इशारे पर काम कर सकती हैं.
नेता विपक्ष के पास हमेशा पैसे और संसाधनों की किल्लत बनी रहती है. उसके पास कोई उपाय नहीं होता सिवाय इसके कि वो हर रुपये का सही इस्तेमाल करे. लेकिन प्रधानमंत्री एक छोटे से अभियान पर भी काफी पैसा खर्च कर सकते हैं. वो बदले के तहत कार्रवाई करवा सकते हैं, राज्य की गुप्त सूचनाओं का इस्तेमाल कर सकते हैं. मेलजोल बढ़ाने या समझौते करने के बजाय उनका जोर बात मनवाने पर होता है. वो कड़क हो जाते हैं. और सभी जानते हैं कि ज्यादा कड़क होने से चीजें टूट जाती हैं.
याद कीजिए, विंस्टन चर्चिल और इंदिरा गांधी को. जिस भी प्रधानमंत्री को नेता विपक्ष के तौर-तरीके और आदतें याद रहेंगी वो प्रधानमंत्री बना रहेगा---भारत के लोकतंत्र की शायद यही विडंबना है.
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