advertisement
दरब फारूकी की कविता 'नाम शाहीन बाग है' उस शाहीन बाग को समर्पित है, जो सिटिजनशिप अमेंडमेंट एक्ट, नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस और नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर के खिलाफ प्रदर्शन का केंद्र बना हुआ है.
कभी सड़कों को सर उठाते देखा है?
कभी ज़ख्मों को मुस्कुराते देखा है?
कभी देखी है, तुमने दुपट्टों में लिपटी आज़ादी?
कहीं देखी है, अस्सी साल की इन्क़लाबी शहज़ादी?
वो मरकज़ जो आज, एतिजाज का चिराग़ है,
उसी चमचमाती लौ का नाम शाहीन बाग़ है.
तुझे ज़िद देखनी है तो आ ज़िद देख
जामा नहीं, हक़ की ये मस्जिद देख
आके दिलों की गर्मी में, यहाँ हाथ ताप ले
पहाड़ों से ऊंचे हौसलों का, यहां क़द नाप ले
जहां किसी दामन पे नहीं कोई दाग़ है
उस उजले पल्लू का नाम शाहीन बाग़ है
लक्ष्मी बाई देख, रज़िया सुलतान देख
हिजाब से उभरता, नया हिन्दुस्तान देख
अंधेरा चीरती, तकरीरों की अवाज़ सुन
बदलता, उठता, औरतों का समाज सुन
इन औरतों ने दिया, अब अपना घर त्याग है
और इनके नए घर का नाम शाहीन बाग़ है
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)