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VIDEO | ‘मोदीराज’ बीते 25 सालों की सबसे दखलअंदाजी पसंद सरकार है

बड़बोली और आक्रामक सरकार, जो छोटे-मोटे कदमों को भी बढ़ा-चढ़ाकर परोसती है

राघव बहल
वीडियो
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वीडियो एडिटर: मोहम्मद इब्राहिम
वीडियो प्रोड्यूसर: सोनल गुप्ता
कैमरापर्सन: अभिषेक रंजन

मैं एक ऐसे कार्यक्रम में पहुंचा था, जहां भारत के सौ सबसे बड़े विदेशी निवेशक मौजूद थे. आम तौर पर, ऐसे जमावड़े में मेरी हालत मोदी के जोशीले समर्थकों से घिरे, बेमेल और नुक्ताचीनी करने वाले इकलौते आलोचक जैसी होती है. मैं वहां हुई बातचीत के बारे में बात कर रहा हूं. आप भी सुनिए मैंने क्या कहा.

लेडीज एंड जेंटलमेन, मुझे पता है कि सुबह से ही आप लोग देश के आला अफसरों से मिलते रहे हैं, जिन्होंने आपको ऐसे ढेरों शानदार कदमों के बारे में बताया है, जो इस सरकार ने हमारी अर्थव्यवस्था के लिए उठाए हैं. लेकिन मुझे खेद है कि मैं आपको कुछ अलग ही कहानी सुनाने जा रहा हूं.

नरेंद्र मोदी की स्थिति नेपोलियन के उस कहावत वाले "लकी जनरल" जैसी थी, जिसे 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था के लिबरलाइजेशन के बाद पहली बार एक पार्टी के बहुमत वाली सरकार के नेतृत्व का मौका मिला. उनकी किस्मत तब और चमकी, जब कच्चे तेल की कीमतें 2014 के 108 डॉलर प्रति बैरल से गिरकर 2016 में 30 डॉलर प्रति बैरल पर आ गईं. उनकी सरकार को करीब तीन साल में लगभग 100 अरब डॉलर की अप्रत्याशित कमाई हुई थी.

जरा कल्पना कीजिए, अगर सरकार ने पेट्रोल पंप पर बिकने वाले पेट्रोल-डीजल के दामों में कटौती करके इसका फायदा आम जनता तक पहुंचाया होता, तो क्या होता? प्राइवेट डिमांड और कॉरपोरेट इनवेस्टमेंट के लिए इससे जबरदस्त टैक्स स्टिमुलस यानी प्रोत्साहन भला और क्या हो सकता था?

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या फिर मोदी ने 100 अरब डॉलर के इस खजाने का इस्तेमाल अगर संकट से जूझते बैंकों और इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनियों की मदद के लिए TARP (*) जैसी सुविधा बनाने में किया होता? अगर ऐसा किया जाता, तो हमारी “दोहरी बैलैंस शीट प्रॉब्लम” यानी बैंकों और कंपनियों - दोनों के संकट में फंसे होने की समस्या एक ही झटके में दूर सकती थी. इससे विकास के रास्ते की तमाम रुकावटें भी खत्म हो सकती थीं.

(*) 2008 में अमेरिका के सब-प्राइम संकट को दूर करने के लिए राष्ट्रपति बुश और फेडरल रिजर्व चीफ बेन बर्नान्के की पहल पर शुरू किए गए “Troubled Asset Relief Programme” को ही संक्षेप में TARP कहते हैं.

लेकिन मोदी ने ऐसा करने की बजाय तेल पर टैक्स को बढ़ाकर दोगुना-तिगुना कर दिया, ताकि कीमतों में गिरावट से होने वाली बचत को आम लोगों की जेब से छीनकर सरकारी खजाने में भर लिया जाए. इस कमाई को भारी-भरकम वेलफेलफेयर प्रोग्राम पर खर्च करके मोदी ने समस्या को और उलझा दिया, क्योंकि ऐसे प्रोग्राम पैसों की बर्बादी और संसाधनों के रिसाव के लिए हमेशा से बदनाम रहे हैं.

इस बात को समझने के लिए एक ही उदाहरण काफी है : फर्जी आधार कार्ड और बायोमेट्रिक पहचान का इस्तेमाल करके गैरकानूनी तरीके से 2 लाख टन अनाज की हेराफेरी की गई, वो भी उत्तर प्रदेश के सिर्फ एक ही जिले में!

आज उस ‘पुराने पाप’ ने मोदी को अपनी गिरफ्त में ले लिया है. जैसे-जैसे डॉलर मजबूत हुआ और कच्चे तेल का भाव बढ़कर वापस 80 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंचा, महाराजा के सारे कपड़े उतर गए. अब अगर सरकार आसमान छूते टैक्स में कटौती करे, तो उसके सरकारी खजाने का गणित बिगड़ जाएगा.

अगर सरकार वेलफेयर स्कीम्स को वापस लेने की सोचे, तो राजनीतिक माहौल और समर्थकों के छिटकने का खतरा है. लेकिन अगर मोदी कुछ नहीं करते, तो उनके कथित राष्ट्रवादी समर्थक उन्हें रुपये को कमजोर करने का कसूरवार ठहराएंगे, जिसे वो अपनी गलतफहमी की वजह से भारत के गौरव का प्रतीक मानते हैं.

ये भी देखें- एक ‘बौराये’ लिबरल...नहीं-नहीं... अर्बन नक्सल की डायरी

आपको मैं एक और उदाहरण देता हूं कि किस तरह माइनॉरिटी शेयरहोल्डर के अधिकारों का दमन किया गया और किस तरह रेगुलेटर सरकार की गिरफ्त में आ गए. इस साल की शुरुआत में मोदी सरकार को लग रहा था कि वो अपने विनिवेश लक्ष्य हासिल करने से काफी पीछे रह गई है. उनको करीब 35-40 हजार करोड़ रुपए की बहुत इमरजेंसी में जरुरत थी.

तो सरकार ने मनमानी करते हुए ओएनजीसी की बैलेंस शीट से कैश निकालकर अपने खजाने में डाल दिया था, जो माइनॉरिटी शेयरहोल्डर के अधिकारों का हनन है. इससे भी बुरी बात ये कि सरकार की मनमानी इतने पर ही नहीं रुकी. कानून के मुताबिक ओएनजीसी को 26 फीसदी और शेयर खरीदने के लिए ओपन ऑफर देना चाहिए था, जिससे एचपीसीएल के उन सभी शेयरधारकों को भी अपनी पूंजी निकालने का मौका मिलता, जो ऐसा करने के इच्छुक होते.

लेकिन मोदी सरकार ने 40 साल पुराना नेशनलाइजेशन एक्ट दिखाकर दावा किया कि एचपीसीएल का नियंत्रण पेट्रोलियम मंत्रालय की जगह ओएनजीसी के हाथों में चले जाने के बावजूद, वो अब भी एक पब्लिक सेक्टर कंपनी ही है. सेबी (Securities and Exchange Board of India) ने भी सरकार के पिछलग्गू की तरह बर्ताव किया और ओपन ऑफर नहीं लाने की छूट दे दी !

ये एक रेगुलेटरी संस्था पर भारत सरकार द्वारा खुलेआम कब्जा किए जाने की मिसाल है. "ताकतवर सरकार" के अहंकार का खुला प्रदर्शन है.

मैं आपको ऐसे और उदाहरण देता हूं जिससे आप मान सकें कि ये सरकार बहुत वर्चस्ववादी सरकार है

  • निवेश पर एक पैसे का भी मुनाफा होने से पहले "एंजेल टैक्स" भरना पड़ता है. इसमें कुछ मामूली सी छूट मिल सकती है, लेकिन इसके लिए आपको सरकारी बाबुओं की एक कमेटी को ये समझाना पड़ेगा कि आपने कितने "इन्नोवेटिव" हैं.
  • कंपनियों को अपने कर्ज का 25% हिस्सा बॉन्ड मार्केट से लेने के लिए मजबूर किया जाता है.
  • बेतुकी और हास्यास्पद शर्तों के कारण एयर इंडिया के लिए एक भी बोली लगाने वाला नहीं मिला. ये शर्तें हैं : कोई छंटनी नहीं होगी, कोई री-ब्रैंडिंग नहीं होगी, नई पैरेंट कंपनी के साथ मर्जर भी नहीं होगा.
  • कोयला खदानों को निजीकरण के लिए खोला गया, लेकिन कोई निवेश होने से पहले ही फैसले को वापस ले लिया गया.
  • दवाओं और स्टेंट की कीमतों की अधिकतम सीमा तय कर दी गई, सैरिडॉन जैसी दशकों पुरानी दवाओं पर पाबंदी लगा दी गई.
  • मॉनसैंटों की रॉयल्टी की अधिकतम सीमा तय करके उसे एक तरह से देश से बाहर भगा दिया गया.
  • महाराष्ट्र के प्राइवेट ट्रेडर्स ने अगर एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दाम पर अनाज खरीदा, तो उन पर आपराधिक मुकदमा चलाया जाएगा. फ्री मार्केट गया भाड़ में.

अब आप पूछेंगे कि कोई तो ऐसी पाॅलिसी होगी जिससे मैं सहमति रखता हूं जो गेम चेंजर होगी. हां, मैं ये मानने को तैयार हूं कि ये सरकार IBC पाॅलिसी लेकर आई है. ‘इन्सॉल्वेंसी और बैंकरप्सी कोड’यानी IBC, ये काफी बोल्ड पाॅलिसी है. इससे उन्होंने फ्री मार्केट के उसूलों को बनाए रखा है क्योंकि इससे इंडस्ट्रियल एसेट जो दिवालिएपन की कगार पर आ गए हैं उन्हें फ्री मार्केट नीलामी के तहत बेचा जा रहा है. ये पाॅलिसी दमदार भी है और सफल भी हो रही है. लेकिन सिवाय इस पाॅलिसी के जो कि एक अपवाद है, ये सरकार मार्केट फोर्सेज के लिए हमेशा अविश्वसनीय, संदेहास्पद रही है.

मैं ये भी कहूंगा कि ये भारत में लिबरलाइजेशन के बाद यानी पिछले करीब 25 सालों की सबसे ज्यादा सरकारी-वर्चस्ववादी, दखलंदाजी करने वाली और बाजार-विरोधी सरकार है.

दुनिया की जानी मानी मैगजीन द इकॉनमिस्ट ने प्रधानमंत्री मोदी को "टिंकरर" यानी जोड़-तोड़ और जुगाड़ में माहिर मेकैनिक कहा है. मैं उनसे कुछ हद तक असहमत हूं. मैं इसे एक ऐसी बड़बोली और आक्रामक सरकार मानता हूं, जो बेबी स्‍टेप्‍स को भी बढ़ा-चढ़ाकर परोसती है.

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Published: 30 Sep 2018,11:15 AM IST

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