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क्या CAA के खिलाफ असम में होने वाले प्रदर्शन नस्ली फासीवाद है?

एक तरफ लोग अपनी पहचान बचाने की बात कर रहे हैं और दूसरी तरफ इसे नस्लीय फासीवाद कहा जा रहा है

इशाद्रिता लाहिड़ी
न्यूज वीडियो
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(फोटो: क्विंट हिंदी)
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(फोटो: क्विंट हिंदी)

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वीडियो एडिटर: संदीप सुमन/अभिषेक शर्मा

सिटिजनशिप अमेंडमेंट बिल के खिलाफ सबसे पहले असम में शुरू प्रदर्शन हुए. डिब्रूगढ़ से लेकर गुवाहाटी तक प्रदर्शन चल रहे हैं लेकिन कई लोग असम के प्रदर्शनकारियों की आलोचना कर रहे हैं कि ये प्रदर्शन गलत वजहों से हो रहे हैं प्रदर्शन इसलिए हो रहे हैं ताकि असम में रहने वाले बंगाली लोगों पर असम के मूलनिवासियों की मेजॉरिटी बनी रहे.

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इससे सोशल मीडिया और दूसरी जगहों पर बंगाल, असम और दूसरे राज्यों में बंगाली, असमी और बाकी लोगों के बीच बहस शुरू हो गई है. एक तरफ लोग अपनी पहचान बचाने की बात कर रहे हैं और दूसरी तरफ इसे नस्ली फासीवाद कहा जा रहा है, क्या CAA के खिलाफ असम में होने वाले प्रदर्शन नस्ली फासीवाद है?

क्या CAA के खिलाफ असम में होने वाले प्रदर्शन नस्ली फासीवाद है?

अगर ईमानदारी से कहें तो हां, ऐसा ही है लेकिन ये मानना थोड़ा मुश्किल है - इसका सबसे महत्वपूर्ण तर्क है कि असम में NRC प्रक्रिया के दौरान प्रदर्शनकारी चुप थे क्योंकि उन्हें लगता था कि NRC में गैर असमिया ‘बाहरी’ लोगों की होगी पहचान और उसके बाद इन ‘बाहरी’ को कहा जाएगा कि वो असम छोड़ दें, इसके बाद CAA आया जिसमें कहा गया कि हिंदू प्रवासियों को नागरिकता मिल जाएगी और ये उनको नहीं चाहिए क्योंकि इससे बांग्लादेश से आए हिंदू असम के नागरिक बन जाएंगे और इसलिए CAA के खिलाफ पूरे असम में प्रोटेस्ट शुरू हो गए.

हां, असम के किसी नागरिक के प्रोटेस्ट की वजह दिल्ली में मुसलमानों के प्रोटेस्ट की वजह से बिलकुल अलग है लेकिन असमिया लोगों की भावनाएं फासिस्ट नहीं हैं.

डेमोग्राफी से ज्यादा कल्चर को लेकर असम के लोगों का डर है.

जहां असम के गुवाहाटी, डिब्रूगढ़ और नौगांव में प्रोटेस्ट हो रहे हैं वहीं बराक वैली, कार्बी आंगलोंग, दीमा हासो और वो सात जिले जिन्हें CAA से बाहर कर दिया गया है वहां लोग चुप क्यों हैं?

ILP यानी इनर लाइन परमिट वाले इलाकों में प्रदर्शन नहीं हो रहे हैं. लेकिन आप जैसे आलोचक इतिहास भूल जाते हैं असम के लोग नाराज हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके और भारत सरकार के बीच जो डील थी वो टूट गई है, जिसे 1985 का असम अकॉर्ड कहा जाता है

जिसे राजीव गांधी सरकार और असम आंदोलन के नेताओं ने साइन किया था. AASU और दूसरी रीजनल पार्टियों के इस आंदोलन में सरकार से उम्मीद थी कि अवैध प्रवासियों की पहचान कर उन्हें बाहर निकालेंगे क्योंकि इनमें ज्यादातर लोग बांग्लादेशी थे असम के लोग अपनी मूल पहचान को बचाने के लिए सुधार की मांग कर रहे थे.

लेकिन ये असम के लोग परेशान क्यों थे? असम के लोगों को किस बात का डर था?

इतिहास देखें तो 19वीं सदी से ही असम में बाहरी लोगों का आना शुरू हो गया खासतौर पर बंगाली शरणार्थी जिन्हें अंग्रेज लेकर आए इससे असम का कल्चरल और डेमोग्रैफिक बैलेंस बिगड़ गया. करीब 37 सालों तक अंग्रेजों ने बंगाली को असम का ऑफिशियल लैंग्वेज भी बनाए रखा 1947 में बंटवारे के बाद हिंदू बंगाली असम में आने लगे और फिर 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद हुई हिंसा में लोग उधर से आए ये डर सांस्कृतिक रूप से दबाए जाने के इतिहास की वजह से पैदा हुआ

लेकिन ऐसा नहीं है कि ये जुल्म और खून-खराबा एकतरफा था?

ये एकतरफा नहीं था 1983 के नेली दंगा के बारे में तो तुम जानती होगी जिसमें असम में 2000 से ज्यादा मुसलमानों को मार दिया गया था वो अब तक का सबसे खौफनाक नस्ली हिंसा था.

लेकिन कई लोगों का मानना है कि नेली में जो हुआ उसके पीछे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का वो फैसला था जिसमें उन्होंने 40 लाख बांग्लादेशी शरणार्थियों को मतदान का अधिकार दे दिया वो वोट बैंक की राजनीति थी. इससे असम के लोग डर गए और हिंसा शुरू हो गया देखो, असम के लोगों ने बंगाली लोगों को पहले भी टारगेट किया था ‘बोंगाल खेदा’ आंदोलन 1948 में शुरू हुआ था सच तो ये है कि बंगाली मुसलमानों ने असम के कल्चर को अपना लिया लेकिन इसके बाद भी उन्हें टारगेट किया गया.

ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि बंगाली मुसलमान जब असम के कल्चर को अपनाते हैं तो असम के कुछ लोगों को ये पसंद नहीं आता बंगाली मुसलमानों ने असम के कल्चर को अपनाया जो असम के मूल निवासियों को पसंद नहीं आया जब बंगाली मुसलमान असमी को अपनी पहली भाषा बताते हैं कुछ लोकल लोगों को लगता है. इससे उनकी अपनी पहचान कम हो जाएगी वहीं जो बंगाली हिंदू हैं वो अब भी बंगाली को अपनी मातृभाषा बताते हैं तो इससे भी असम के लोगों को परेशानी होती है

असम का 'मूल मुसलमान' कौन हैं इस पर अलग डिबेट चल रही है

जब स्थानीय मुस्लिम समुदाय की लिस्ट बनाई गई, चार मुस्लिम ग्रुप उसमें शामिल किए गए मिया मुस्लिम जैसे लोग जो कि अंग्रेजों के समय में असम आए थे, उनको इसमें शामिल नहीं किया गया. जिधर देखो, लोग नाराज हैं क्योंकि कुछ ऐसी बातें जिससे लाखों लोगों की जिंदगी पर असर होता है उसे नजरअंदाज किया गया है

ये NRC, ये डिटेंशन सेंटर, ये फॉरेन ट्रिब्यूनल कुछ भी ठीक से नहीं किया गया नीयत तक ठीक नहीं थी. लाखों लोगों को परेशान किया जा रहा है और हां, ये भी सच है कि तुम लाख किसी को अवैध बांग्लादेशी कह लो बांग्लादेश तुम्हारे दावे को सच नहीं मान लेगा और असम में रहने वाली तीसरी पीढ़ी का बंगाली उस जगह को क्यों छोड़ेगा जहां उसका जन्म हुआ जहां उसकी परवरिश हुई, जहां वो रोजी-रोटी कमा रहा है आप कितने लोगों को डिटेंशन सेंटर में डालेंगे?

इनमें से कितनी प्रॉब्लम्स ऐसी हैं जिनका सॉल्यूशन सिर्फ दिल्ली से निकल सकता है इसका लोकल Ethno Fascism से कोई लेना-देना नहीं है?

ये सिर्फ दिल्ली की समस्या है लेकिन लोकल लोगों की असुरक्षा की भावना और वोट बैंक राजनीति की वजह से वोट बैंक राजनीति ने असुरक्षा की भावना को बढ़ाया ये समस्या सालों से बनी हुई है इसका सिर्फ एक ही हल है -'जरा सुनो तो असम क्या कह रहा है'

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Published: 10 Mar 2020,05:23 PM IST

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