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भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के आलाकमान ने असम में मुख्यमंत्री पद के लिए सर्बानंद सोनोवाल के बजाए हिमंता बिस्वा सरमा को चुना है. यह ऐलान एक हफ्ते के गतिरोध के बाद रविवार 9 मई को किया गया. शनिवार को, बीजेपी के शीर्ष नेताओं ने गतिरोध का समाधान निकालने के लिए सोनोवाल और सरमा दोनों से मुलाकात की थी.
यह फैसला जिज्ञासा पैदा करने वाला है, क्योंकि सोनोवाल उत्तराखंड के त्रिवेंद्र सिंह रावत की तरह एक अलोकप्रिय सीएम नहीं थे, जिन्हें कुछ महीने पहले बदल दिया गया था, न ही वह मनोहर लाल खट्टर और विजय रूपाणी जैसे सीएम थे जो आलोचना के बावजूद पद पर बने रहे हैं. असल में, शासन और लोकप्रियता दोनों के संदर्भ में, सोनोवाल को बाकी कई बीजेपी सीएम से बेहतर माना जा रहा था.
ऐसे में, हिमंता को चुने जाने की 3 बड़ी वजहें ये हैं:
1. हिमंता बिस्वा सरमा का मजबूत कद
असम में विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले, यह साफ लग रहा था कि बीजेपी सोनोवाल के नेतृत्व में चुनाव में उतरेगी क्योंकि पार्टी आम तौर पर मौजूदा सीएम चेहरों के साथ ही चुनाव लड़ती रही है.
लेकिन कैंपेनिंग के दौरान, राज्य के बीजेपी प्रमुख रंजीत दास ने घोषणा की कि पार्टी मुख्यमंत्री के चेहरे के साथ चुनाव नहीं लड़ेगी. यह पहला संकेत था कि हिमंता साफ कर रहे थे कि वह राज्य में शीर्ष पद चाहते हैं.
नतीजों के बाद, सरमा ने केंद्रीय नेतृत्व को साफ कर दिया कि बीजेपी के ज्यादातर विधायकों ने उनका समर्थन किया है.
मुख्यमंत्री पद के लिए हिमंता की महत्वाकांक्षा जगजाहिर है. कहा जाता है कि वह 2014 में तब सीएम बनना चाहते थे जब वह कांग्रेस में थे और तत्कालीन सीएम तरुण गोगोई के दाहिने हाथ माने जाते थे. उन्होंने 2015 में कांग्रेस में अपनी महत्वाकांक्षाओं के नाकाम होने के बाद पार्टी छोड़ने का फैसला किया था, जब तरुण ने कथित तौर पर अपने बेटे गौरव को बढ़ावा देने की कोशिश की थी.
असम का गतिरोध उस समय हुआ जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह अपने COVID प्रबंधन के साथ-साथ बंगाल की हार पर आलोचना के कारण कमजोर स्थिति में थे. इससे सरमा को मदद मिली क्योंकि ऐसे वक्त में बीजेपी बगावत बिल्कुल भी नहीं चाहती.
विधायकों के अलावा, राज्य और देश का मीडिया भी सरमा के नाम पर जोर दे रहा था. सोनोवाल के पास न तो पर्याप्त विधायक थे और न ही उनको लेकर मीडिया में ज्यादा चर्चा थी.
कुछ हद तक, सरमा को पिछली सरकार में मंत्री के तौर पर किए गए काम और चुनाव के दौरान उनके प्रदर्शन के लिए भी इनाम मिला है.
उन्होंने कई अहम विभागों जैसे वित्त, स्वास्थ्य, पीडब्ल्यूडी और शिक्षा की जिम्मेदारी संभाली. पिछले साल COVID-19 संकट से निपटने के लिए भी उनकी तारीफ हुई थी.
चुनावों के दौरान, सरमा ने राज्य के 126 निर्वाचन क्षेत्रों में 250 से ज्यादा रैलियां कीं और आगे आकर अभियान का नेतृत्व किया.
बोडोलैंड में उनका जुआ - बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट का साथ छोड़ना और यूपीपीएल के साथ गठबंधन करना - भी काम आया क्योंकि एनडीए ने इस क्षेत्र में दो तिहाई सीटें जीतीं.
न तो सोनोवाल और न ही हिमंता बीजेपी या आरएसएस की पृष्ठभूमि से आते हैं. सोनोवाल ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन के अध्यक्ष थे और फिर वह असम गण परिषद में शामिल हुए. उनकी कानूनी लड़ाई आईएमडीटी एक्ट के खत्म होने की वजह बनी, जिससे उन्हें जातीय नायक का दर्जा मिला. वह 2011 में बीजेपी में शामिल हुए थे. असमिया राष्ट्रवादियों के बीच सोनोवाल की लोकप्रियता ने इस खेमे में बीजेपी की स्वीकार्यता को बढ़ाने में मदद की.
हालांकि, वैचारिक रूप से, सरमा ने सोनोवाल से बेहतर रूपांतर किया. सरमा को अक्सर मुसलमानों के खिलाफ साम्प्रदायिक टिप्पणी करने के लिए जाना जाता है. चुनावों के दौरान भी, उन्होंने कहा कि "हमें 34 फीसदी के समर्थन की जरूरत नहीं है", स्पष्ट रूप से इस दौरान उन्होंने असम के मुस्लिम अल्पसंख्यकों का जिक्र किया.
दोनों नेताओं के बीच, नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के संबंध में भी एक और अहम अंतर दिखा है. सरमा बांग्लादेशी हिंदू प्रवासियों के पुनर्वास की जरूरत के बारे में अपने समर्थन को लेकर बेहद खुले हैं. दूसरी ओर, सोनोवाल ज्यादातर इस मुद्दे पर चुप रहे हैं, माना जाता है कि असमिया राष्ट्रवादियों को ध्यान में रखकर उन्होंने ऐसा किया है.
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