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Bihar Politics: थोक के भाव में यात्राओं से कहां पहुंचेगी बिहार की सियासत?

Bihar: पश्चिमी चंपारण से अमित शाह ने नीतीश पर तीर चलाए तो महागठबंधन ने पूर्णिया के मंच से बीजेपी पर निशाना साधा.

मोहन कुमार & पल्लव मिश्रा
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<div class="paragraphs"><p>Bihar Politics: थोक के भाव में यात्राओं से कहां पहुंचेगी बिहार की सियासत?</p></div>
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Bihar Politics: थोक के भाव में यात्राओं से कहां पहुंचेगी बिहार की सियासत?

(फोटो: क्विंट)

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बिहार (Bihar) देश की राजनीति का केंद्र रहा है. 2024 लोकसभा चुनाव से पहले ये एक बार फिर सियासी रणभूमि बनता दिख रहा है. राष्ट्रीय पार्टियों के साथ ही क्षेत्रीय पार्टियां जोर आजमाइश में जुटी हैं. राजनीतिक यात्राओं से लेकर रैलियां और सभाएं शुरू हो चुकी हैं. लेकिन गौर करने वाली बात है कि अभी तुरंत बिहार में विधानसभा चुनाव नहीं है और लोकसभा चुनाव 13 महीने दूर है. फिर अभी से इन रैलियों और यात्रायों के क्या मायने हैं?

अमित शाह ने 'जंगलराज' की याद दिलाई

सबसे पहले बात अमित शाह और महागठबंधन की रैली की. एक तरफ पश्चिमी चंपारण से अमित शाह ने नीतीश पर तीर चलाए तो महागठबंधन ने पूर्णिया के मंच से बीजेपी पर निशाना साधा. 2024 और 2025 की लड़ाई दोनों पक्ष किन सियासी हथियारों से लड़ने वाले हैं इसका इशारा इन रैलियों में मिला.

अमित शाह ने कहा की नीतीश कुमार के लिए पार्टी के सभी दरवाजे बंद हो गए हैं. इस बयान के जरिए शाह ने अति पिछड़ा समूह, कुशवाहा जाति और सवर्णों को सीधा मैसेज देने की कोशिश की है. तो वहीं ‘जंगल राज’ के बहाने उन्होंने कानून-व्यवस्था के मुद्दे को जीवित रखने की कोशिश की है. इससे JDU समर्थक वर्ग RJD की तरफ जाने से हिचक सकता है.

मुस्लिम वोटरों पर महागठबंधन की नजर

दूसरी तरफ महागठबंधन की पूर्णिया रैली में मुस्लिम वोटरों को साधने की कोशिश साफ दिखी. सीएम नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव के साथ ही लालू यादव के संबोधन स्पष्ट संदेश दे रहे थे. लालू ने तो बीजेपी को RSS का मुखौटा करार दिया. सीमांचल लंबे समय तक समाजवादी विचारधारा के दलों का गढ़ रहा है. खास कर लालू प्रसाद यादव के लिए. वे यहां अपने मुस्लिम यादव (MY) फॉर्मूले से लगातार जीतते रहे हैं. लेकिन AIMIM की पैठ से RJD को झटका लगा है. पिछले विधानसभा चुनाव में ओवैसी की पार्टी AIMIM ने सीमांचल में अपने 20 कैंडिडेट उतारे और 5 सीटें जीतने में कामयाब रही. हालांकि, 5 में से 4 विधायकों को आरजेडी की सदस्यता दिलाकर तेजस्वी यादव ने चुनाव का बदला भी ले लिया था.

बिहार में राजनीतिक यात्राओं का ट्रेंड

बिहार में राजनीतिक यात्राओं का ट्रेंड बढ़ा है. कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा, नीतीश कुमार की समाधान यात्रा, प्रशांत किशोर का जन सुराज अभियान, उपेंद्र कुशवाहा की विरासत बचाओ नमन यात्रा, जीतनराम मांझी की गरीब संपर्क यात्रा. इसके अलावा आरसीपी सिंह, चिराग पासवान और मुकेश सहनी भी यात्रा कर रहे हैं. लेकिन इन यात्राओं के क्या मायने हैं.

क्विंट हिंदी से बात करते हुए राजनीतिक विश्लेषक संजय कुमार कहते हैं,

"चुनाव में अभी समय है, लेकिन संदेश जाना शुरू हो जाता है. 2024 चुनावी साल होगा, ऐसे में सभी राजनीतिक दल जनता को संदेश देना और उनसे संवाद करना चाहते हैं. इसलिए कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर और क्षेत्रीय दल प्रदेश में यात्रा निकाल रहे हैं."

वरिष्ठ पत्रकार कुमार पंकज कहते हैं,

"बिहार में कुछ समय से जो राजनीतिक उथल-पुथल मची है उसका सभी राजनीतिक दल लाभ लेना चाहते हैं. बीजेपी हमेशा से आक्रामक रहती है और चौबिसों घंटे चुनावी मोड में काम करती है. बीजेपी ने सिखा दिया है कि हमेशा चुनावी मोड में रहें और जनता के बीच में रहें. बिहार में रैली उसी रणनीति का हिस्सा है."

राजनीतिक यात्रा के क्या मायने?

नीतीश कुमार ने अपनी समाधान यात्रा के जरिए जनता की नब्ज टटोली तो वहीं कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर भारत जोड़ो यात्रा की सफलता को प्रदेश में भी दोहराना चाहती और इसके जरिए अपने कोर वोटर्स तक पहुंचने की कोशिश कर रही है. राजनीतिक जानकारों की मानें तो, छोटे दल भी यात्रा के जरिए अपनी राजनीतिक ताकत का एहसास कराना चाहते हैं. इसके अलावा बिहार में कास्ट पॉलिटिक्स भी हावी है. मुकेश सहनी मल्लाह समाज से आते हैं और प्रदेश में निषादों की आबादी तकरीबन 3-4 फीसदी है. बिहार के 5 लोकसभा सीटों पर निषाद समाज का सीधा प्रभाव है.

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उपेंद्र कुशवाहा का 13 से 14 जिलों में प्रभाव है और वोट के हिसाब से प्रदेश में कुशवाहा की करीब 7 से 8 फीसदी आबादी है. पासवान समाज दलित में आता है और प्रदेश में उसकी करीब 4.2 फीसदी हिस्सेदारी है जबकि मांझी महादलित में आते हैं और वो बिहार में 10 प्रतिशत हैं. वहीं जनसुराज यात्रा के जरिए प्रशांत किशोर भी अपनी राजनीतिक जमीन तलाश रहे हैं.

कुल मिलाकर समझ ये आ रहा है कि बिहार 2024 की महाभारत का बहुत बड़ा बैटल ग्राउंड बनकर उभरा है. एक के बाद एक रैलियां और यात्राएं बता रही हैं कि कोई भी पक्ष इस जमीन को छोड़ने की गलती नहीं करना चाहता. लिहाजा सभी दल अपने-अपने हथियारों के साथ मैदान में उतर आए हैं. बहरहाल, इन यात्राओं और रैलियों का किसको कितना फायदा होगा ये तो वक्त ही बताएगा. लेकिन ये साफ है इससे प्रदेश का सियासी पारा जरूर बढ़ गया है.

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