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'कांच ही बांस के बहंगिया.. बहंगी लचकत जाए.' इस गीत को सुनते ही अपने गांव से बाहर रह रहे लाखों युवाओं को ठेकुए के स्वाद के साथ घर लौटने के लिए अपनों का पुकार सुनाई देता है. दिवाली के बाद शुरू होती है महापर्व छठ की तैयारियां. 4 दिनों तक चलने वाले लोक आस्था के महापर्व छठ, बिहार वासियों के लिए केवल एक त्योहार नहीं है, यादों का पूरा संसार है.
बिहार में दशहरा-दिवाली खत्म होते ही छठ की तैयारी शुरू हो जाती है. पढ़ाई या काम की वजह से गांव छोड़कर बाहर रह रहें युवाओं के पास बचपन के यार-दोस्त, रिश्तेदार का फोन आने लगता है और पूछते हैं कि छठ के लिए कब घर आ रहे हो..अभी घाट बनाने का काम भी शुरू नहीं हुआ है, जल्दी आओ.'
अक्सर दिल्ली, मुम्बंई...के ऑफिसों में काम करने वाले लोग बिहारियों से कहते हैं, 'तुम लोग छठ को लेकर इतना बेताब क्यों रहते हो', उन्हें कौन समझाए कि गांव से बाहर (बिहार से) रह-रहें लोगों के लिए बहाना है गांव लौट जाने का.. छठ बहाना है नहाए-खाए वाले कद्दू भात को खाने का, जिसका स्वाद साल के किसी और दिन नहीं मिलता. छठ बहाना है मिट्टी के उन चुल्हें पर बनें खीर का, छठ बहाना है गोबर से निपाई वाले आंगन की खूशबू का, जो महानगर के प्रदूषित शहरों में कहीं नहीं मिलती. छठ बहाना है 36 घंटे का निर्जला व्रत करती मां के सामने जाकर खड़े हो जाने का, जिसको अपने बेटे का इंतजार है.
.पूरे दुनिया में उगते सूर्य की उपासना की जाती है, वहीं सिर्फ बिहार-झारखंड का महापर्व छठ ही है जिसमें हम डूबते हुए सूर्य को भी श्रद्धा के साथ पूजते हैं. उन्हें अर्घ्य अर्पित करते हैं. व्रती जब गंगा में डुबकी लगाती हैं तो वो भगवान भास्कर से अपने लिए नहीं बल्कि परिवार के लिए सबकुछ मांगती है.
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