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ये जो इंडिया है न यह हमारी नई राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की जय-जयकार कर रहा है. राष्ट्रपति भवन में पहुंचने वाली पहली आदिवासी भारतीय, और दूसरी महिला. ओडिशा के मयूरभंज जिले की एक स्कूल टीचर, जो राज्य के सिंचाई विभाग में काम करती थीं, 2 बार बीजेपी के टिकट पर विधायक, राज्य मंत्री और 6 साल तक झारखंड की राज्यपाल. द्रौपदी मुर्मू को विनम्र, आध्यात्मिक और अपने दिमाग के लिए जाना जाता है.
2017 में, झारखंड के राज्यपाल के रूप में, उन्होंने दो (two tribal land ownership Acts) में संशोधन की मांग करते हुए बिल वापस भेज दिया था. मुर्मू ने खुद की पार्टी बीजेपी के सीएम रघुबर दास से यह स्पष्ट करने के लिए कहा था कि वो बताएं कि यह विधेयक आदिवासियों की मदद कैसे करेगा. उनकी आशंका जायज थी, क्योंकि आज तक वह बिल पास नहीं हुआ.
भारत के राष्ट्रपति के रूप में एक आदिवासी महिला का शपथ लेना सशक्त है, यह मायने रखता है. यह भारत के कई आदिवासियों के लिए, कई भारतीय महिलाओं के लिए, कामकाजी महिलाओं के लिए, भारत के कई हाशिए पर रहने वालों के लिए मायने रखता है. जिन माओं को ये पता चलेगा कि द्रौपदी मुर्मू ने कम उम्र में अपने दो बेटों को खो दिया था, और फिर भी खुद को सार्वजनिक जीवन में योगदान देने के लिए और भारत की 15 वीं राष्ट्रपति बनने के लिए प्रेरित किया. सच में ये प्रेरणादायक है. इंस्पायरिंग है.
लेकिन फिर, ये खबर पढ़िए- छत्तीसगढ़ में एक विशेष एनआईए अदालत ने 121 आदिवासियों को बरी कर दिया, जिन्हें 2017 में एक माओवादी हमले के बाद गिरफ्तार किया गया था, जिसमें 25 सीआरपीएफ जवान मारे गए थे. यह खबर तब आई जब राष्ट्रपति चुनाव में मुर्मू के पक्ष में वोटिंग हुई. सुकमा जिले के 6 गांवों से गिरफ्तार किए गए इन 121 आदिवासियों के खिलाफ कोई सबूत नहीं थे इसके बावजूद उन्होंने 5 साल जेल में गुजारे.
उन पर हत्या का आरोप लगाया गया था, उन पर ऑर्म्स एक्ट के तहत आरोप लगे, पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत और सबसे कठोर गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम या यूएपीए के तहत आरोप लगाए गए थे, जिसने पुलिस को उनके खिलाफ एक भी सबूत पेश किए बिना उन्हें सालों तक जेल में रखने की अनुमति दी थी.
गिरफ्तारी के 4 साल बीत जाने के बाद कोर्ट ने अगस्त 2021 में इस मामले की सुनवाई शुरू की और एक साल बाद उन सभी को बरी कर दिया. अदालत ने अपने आदेश में पुलिस की जांच को खारिज करते हुए कहा था कि पुलिस घटना स्थल पर आरोपियों की मौजूदगी साबित नहीं कर पाई , उन्हें किसी भी आरोपी से कोई हथियार या गोला-बारूद बरामद नहीं हुआ. अदालत ने ये भी कहा कि 121 आदिवासियों में से एक को भी पुलिस माओवादी साबित नहीं कर पाई.
तो, ये जो इंडिया है ना... यहां जब हम द्रौपदी मुर्मू के लिए जयकार करते हैं, तो हमें रुकना चाहिए और ईमानदारी से देखना चाहिए कि हम अपने साथी आदिवासी नागरिकों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं. ये 121 आदिवासी कौन थे? समाचार रिपोर्टों में उनमें से सिर्फ 3 के नाम का उल्लेख है... पदम बुस्का, हेमला अयातु और तीसरे डोंडी मंगलू जिनकी 4 साल की गलत हिरासत के बाद 2021 में जेल में मृत्यु हो गई. जबकि अन्य 118 हममें से अधिकांश के लिए गुमनाम ही रहेंगे, भले ही उन्होंने अन्याय का सामना किया हो.
इन आदिवासियों के खिलाफ मामले क्यों गढ़े गए? क्या माओवादी हमले के स्थान के आसपास के 6 गांवों के लिए यह 'सजा' थी? कब तक आदिवासियों को माओवादियों के खिलाफ लड़ाई में बलि का बकरा बनाया जाएगा? क्या पुलिस को इस तरह से काम करने देना चाहिए? क्या इन गलत गिरफ्तारियों के लिए जिम्मेदार पुलिस वालों पर कार्रवाई की जाएगी? और, क्या इन 121 आदिवासियों को 5 साल जेल में रखने के लिए मुआवजा दिया जाएगा? क्या किसी को परवाह है कि इन 121 आदिवासियों के परिवार इन 5 वर्षों के दौरान कैसे जीवित रहे… ?
ये जो इंडिया है ना... यह 12 मिलियन आदिवासियों का घर हैं... और हाँ, हम सभी को उनके लिए भारतीयों के रूप में, द्रौपदी मुर्मू को गर्व से सेलिब्रेट करना चाहिए, लेकिन खुद को मूर्ख नहीं बनने दे कि सब ठीक है.
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