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‘मीडिया हो पक्षपाती,वॉट्सऐप-मेल पर भी हो पाबंदी,फिर भी संचार संभव’

दलित विचारक चंद्र भान प्रसाद का विश्लेषण

अभय कुमार सिंह
न्यूज वीडियो
Updated:
‘मीडिया हो पक्षपाती, वॉट्सऐप-मेल पर भी हो पाबंदी तो भी संचार संभव’
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‘मीडिया हो पक्षपाती, वॉट्सऐप-मेल पर भी हो पाबंदी तो भी संचार संभव’
(फोटो: क्विंट हिंदी)

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वीडियो एडिटर: कनिष्क दांगी

दिल्ली की अलग-अलग सीमाओं पर किसानों का प्रदर्शन लगातार जारी है. इस बीच प्रदर्शऩ को 'खालिस्तानी साजिश', 'विपक्ष की साजिश', 'गैर-जरूरी', 'राजनीतिक' समेत कई तमगे दिए गए लेकिन इसका असर प्रदर्शऩ पर नहीं पड़ा. 26 जनवरी को ट्रैक्टर परेड में हुई हिंसा के बाद किसान नेताओं पर काफी दबाव बना लेकिन राकेश टिकैत के आंसूओं' ने पश्चिमी यूपी में आंदोलन को धार दे दी.

गाजीपुर बॉर्डर, सिंघु बॉर्डर या अटारी बॉर्डर... क्विंट हिंदी लगातार इन जगहों से ग्राउंड रिपोर्ट दिखाता रहा है और किसानों की बात पहुंचाता रहा है. कई बार किसानों की तरफ से ये शिकायत सुनने में आती है कि ज्यादातर टीवी न्यूज चैनल 'पक्षपात' करते हैं. प्रदर्शनकारी किसानों का आरोप है कि ये एकतरफा खबर दिखाते हैं और आंदोलन को भ्रमित करने की कोशिश करते हैं.

ये वीडियो देखिए-

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क्विंट हिंदी से बातचीत में लेखक और दलित विचारक चंद्र भान प्रसाद कहते हैं कि मेनस्ट्रीम मीडिया की क्रेडिबिलिटी खत्म हो चुकी है. उनका कहना है कि अब तो सवाल ये है कि अगर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स जैसे ट्विटर,फेसबुक, यूट्यूब पर बैन लगा दिया जाए या किसी वजह से ये बंद हो जाएं तब क्या होगा?

चंद्र भान प्रसाद का कहना है कि सालों से ऐसा देखा जाता रहा है कि कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिनके लिए किसी भी मीडिया की जरूरत नहीं होती है. साथ ही ये सब बंद हो जाए तो भी संचार लोगों के बीच संचार सही तरीके से होता ही रहेगा.

दिल्ली, फरीदाबाद, बनारस, कानपुर, लखनऊ चाहे कोई जगह हो, हर हफ्ते कोई न कोई घर आता है. खबर भी उनके साथ ही आ जाती है. एक उदाहरण देखिए कि अगर आप बलिया के किसी हाईस्कूल में फेल छात्र जो खेती कर रहा है उससे भी बजट की खासियत पूछेंगे तो वो बता देगा कि इस बजट में प्राइवेटाइजेशन के माध्यम से सरकार आरक्षण खत्म कर रही है. क्या कहीं इस बात की चर्चा हुई? क्या किसी अखबार में या न्यूज चैनल में ऐसा दिखाया गया था. तब भी ये बात किसी भी दलित से पूछिए नॉर्थ इंडिया में जाकर, वो यही कहेंगे.
चंद्र भान प्रसाद, दलित विचारक

वो कहते हैं कि साल 2017 में हुए 'दलित आंदोलन' भी इसका बड़ा उदाहरण है. उस दौरान ज्यादातर न्यूज चैनलों ने आंदोलन से पहले इससे जुड़ी खबरों को दिखाया तक नहीं लेकिन बड़े पैमाने पर लोग सड़कों पर इकट्ठा हुए.

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Published: 14 Feb 2021,10:56 PM IST

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