advertisement
वीडियो एडिटर: कुणाल मेहरा
जब उन्हें शहरों ने बेगाना कर दिया तो उन्होंने अपने गांवों की तरफ रुख किया. गिरते-पड़ते, पैदल चलते, रेलवे ट्रैकों पर चलते किसी तरह घर पहुंचे. कुछ के लिए ये रास्ता आखिरी रास्ता बन गया. सैकड़ों मौतें हुईं. इन्हें यकीन था कि अपने राज्य में तो जरूर पनाह मिलेगी, दाना पानी मिलेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अब विडंबना देखिए अपनी जान हथेली पर रखकर किसी तरह गांव पहुंचने वाले मजदूर फिर शहरों की ओर जाने को मजबूर हो गए हैं.
बिहार-यूपी से जाने वाली फुल ट्रेनें इसी बात की सबूत हैं. तो ये मजदूर किस मजबूरी में कोरोना संक्रमण का डर भुलाकर फिर शहरों में जाने को मजबूर हैं. हमने झारखंड के कुछ मजदूरों से यही जानना चाहा.
झारखंड के कई जिलों में हमने ऐसे मजदूरों से बात की जो अब फिर से शहरों की तरफ लौटना चाहते हैं. इन मजदूरों ने बताया कि बच्चों की पढ़ाई-लिखाई तो छोड़िए अब खाने पीने की तक की दिक्कत हो रही है.
बता दें कि लॉकडाउन के बाद झारखंड के करीब 6 लाख प्रवासी मजदूर अपने गांवों को लौटे. सरकार ने इन्हें गांव में ही रोजगार देने के वायदे किए थे. कई योजनाओं का ऐलान हुआ था लेकिन आज हालत ये है कि ये मजदूर बताते हैं कि न तो कोई काम मिल रहा है, न मुफ्त अनाज और न ही 1000 रुपए की मदद. कम से कम हमने जिन मजदूरों से बात की उन्होंने यही शिकायत की. दिल्ली से गोड्डा लौटे जोगेश्वर रजक बताते हैं कि 1000 रुपए की मदद के लिए ऑनलाइनआवेदन किया था लेकिन मिला नहीं. उन्होंने बताया कि उन्होंने मंत्री तक को फोन किया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ, और न ही गांव के मुखिया उनकी मदद कर रहे हैं. हालांकि वापसी की राह भी आसान नहीं है.
इन मजदूरों की मदद की जिम्मेदारी सरकार ने फिया फाउंडेशन को दी है. उनसे बात करने पर हमें अंदाजा लगा कि सरकार अभी तक मजदूरों को रोजगार देने की योजना ही बना रही है. झारखंड श्रम विभाग की तरफ से प्रवासियों के लिए फिया फाउंडेशन ने कंट्रोल रूम बनाया है. इसके स्टेट हेड जॉनसन टोपनो बताते हैं कि- 'अभी उस तरह से रोजगार नहीं मिला है. सभी मनरेगा में ही काम कर रहे हैं. कुछ लोगों को रोजगार के लिए बाहर भेजने का काम किया जा रहा है'
और यही है सच्चाई. अगर अपने राज्य में रोजगार मिलता तो कोई क्यों अपना घर-अपना गांव छोड़कर शहरों के धक्के खाने जाता. रोना ये है कि लॉकडाउन में दर-दर की ठोकरें खाते मजदूरों की पीड़ा देख सरकार ने घड़ियाली आंसू बहाए. उनको रोजगार देने के नाम पर बड़े-बड़े वादे किए लेकिन जमीनी हकीकत देखकर यही लगता है कि कुछ बदला नहीं है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)