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वीडियो एडिटर: विवेक गुप्ता
कैमरा: सुमित बडोला
वीडियो प्रोड्यूसर: सोनल गुप्ता
जबसाड्डा, आपरो, आमची (ब्रिटिश लोगों के मुताबिक स्थानीय लोगों की तीन बोलियों में “हमारे”) लंदन में तनाव बढ़ता जा रहा है कि ब्रिटेन ब्रेग्जिट करेगा या नहीं, इस घबराहट की प्रतिक्रिया भारत में कैसी होनी चाहिए?
एक राष्ट्र के रूप में, हमारे पूर्व उपनिवेशवादियों के प्रति हमारी भावनाएं काफी पेचीदा हैं. कुछ अच्छा और कुछ बुरा, ब्रिटिशों ने आधुनिक भारत को एक आकार दिया, हमारे भीतर असुरक्षा और सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया, और इसके साथ ही अपने कुछ सबसे प्रबुद्ध संस्थान भी दिए: संसदीय लोकतंत्र, एक स्वतंत्र न्यायपालिका, कानून का शासन, अंग्रेजी भाषा (और उच्चारण), विश्वविद्यालय प्रणाली, एक मजबूत मुक्त प्रेस, नौकरशाही और सैन्य वास्तुकला. अंग्रेजों की वजह से ही, हम क्रिकेट खेलते हैं, चाय पीते हैं और सड़क की बाईं ओर गाड़ियां चलाते हैं.
औपनिवेशिक स्थान के नाम बदलने के दिल्ली के प्रयासों के बावजूद, हम अभी भी झारखंड में मैकलुस्कीगंज जाते हैं, जहां एक समय एंग्लो-इंडियन समुदाय की काफी बड़ी आबादी रहा करती थी, और देहरादून में जॉली ग्रांट हवाई अड्डे पर उड़ान भरते हैं. हम चाहते हुए भी ब्रिटिश उपनिवेशवाद के प्रभाव को नहीं मिटा सके थे!
कुछ हद तक, भारत ने भी आधुनिक ब्रिटेन को प्रभावित किया है. कुछ अंग्रेजी शब्द- मिसाल के लिए पाजामा और बंगलो- हिंदी से आते हैं, करी आज यॉर्कशायर पुडिंग के बराबर ही ब्रिटेन के भोजन का हिस्सा है, और दार्जिलिंग और असम की चाय तो वहां का स्टैंडर्ड है.
लेकिन हमारे रास्ते विपरीत दिशाओं में जा रहे हैं. जहां ब्रिटेन पिछड़ता जा रहा है, भारत आगे बढ़ता जा रहा है. एक तरफ ब्रिटेन की आबादी उम्रदराज हो रही है - साठ-पैंसठ और ज्यादा उम्र वाले लोगों का हिस्सा 2016 में 18 प्रतिशत से बढ़कर 2050 तक लगभग 25 प्रतिशत होने की उम्मीद है, और सोलह साल से कम की आबादी 19 से घटकर 17 प्रतिशत तक हो जाएगी-- वहीं भारत का 'युवा उभार' इसे 2024 तक दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बनाने में मदद करेगा. और एक तरफ ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था - 2017 में दुनिया की नौवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था (पीपीपी में) - 2050 तक दसवें स्थान पर आ जाएगी, आईएमएफ के मुताबिक भारत तीसरे पायदान से ऊपर चढ़कर दूसरे पर पहुंच जाएगा.
हालांकि, ब्रिटेन के साथ हमारा सबसे उपयोगी जुड़ाव एक ऐसे संगठन के माध्यम से हो सकता है जिसे ज्यादातर भारतीय उपेक्षित समझते रहे हैं: कॉमनवेल्थ.
यहां तक कि नेहरू ने भी, जिनकी 1949 में पूर्व ब्रिटिश संरक्षित राज्यों के संघ में स्वतंत्र भारत को सदस्यता दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका थी, पहले इसका विरोध किया था. अप्रैल 1947 में उन्होंने कहा था कि किसी भी परिस्थिति में भारत ब्रिटिश राष्ट्रमंडल में नहीं रहेगा, जब ब्रिटिश राज ने भारत को डोमिनियन का दर्जा देने से भी इनकार कर दिया था.
लेकिन जब आजादी मिल गई, तो पूरी तन्मयता और तेजी से, दो साल बाद, नेहरू का मन बदल गया था. उनका मानना था कि आत्मीय देशों का तैयार नेटवर्क भारत की सुरक्षा और आर्थिक संभावनाओं को बढ़ावा देगा - हालांकि वो इस बात पर अड़े रहे कि भारतीय कभी भी राजशाही के प्रति उत्तरदायी नहीं होंगे.
फिर भी कई लोग-- कुछ ब्रिटिशर्स समेत-- इस समूह को साम्राज्य की एक रहस्यमय कलाकृति मानते हैं, जिसका कोई वास्तविक आर्थिक या रणनीतिक लाभ नहीं है; गार्जियन ने सदस्य राष्ट्रों की वार्षिक बैठक को '' जॉम्बी समिट '' कहा था, दो साल में एक बार होने वाली ऐसी सनक, जो खत्म होने का नाम नहीं ले रही. कुछ दूसरे लोग इसे केवल 'ब्रिटिश साम्राज्य 2.0' की संज्ञा देते हैं.
नेहरू के उत्साह दिखाने के बावजूद भारतीयों ने कभी भी राष्ट्रमंडल के विचार को गंभीरता से नहीं लिया और इसके प्रति उपेक्षा का ही भाव दिखाया है. 2010 से लेकर 2018 तक, किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री ने राष्ट्रमंडल की बैठक में शामिल होने की कोशिश नहीं की-- जब तक कि मोदी ने लंदन के आग्रह भरे प्रस्तावों को स्वीकार नहीं किया, जिनमें महारानी एलिजाबेथ की एक चिट्ठी और प्रिंस चार्ल्स की एक व्यक्तिगत यात्रा भी शामिल थी.
जाहिर है, ब्रिटेन कॉमनवेल्थ को पुनर्जीवित करने की उम्मीद कर रहा है ताकि ब्रेग्जिट से होने वाले व्यापार घाटे की भरपाई हो सके. ऐसा करना मुश्किल होगा; ब्रेग्जिट से पहले, यूरोपीय संघ से ब्रिटेन का आधा व्यापार होता था, और केवल 9 फीसदी राष्ट्रमंडल देशों के साथ. भारत के समान, अधिकांश राष्ट्रमंडल सदस्यों ने अन्य देशों के साथ नए व्यापार संबंध विकसित करने में वर्षों बिताए हैं, और वो अपने पूर्व अधिपति को खुश करने के लिए आसानी से उन संबंधों को नहीं छोड़ेंगे. सिंगापुर समेत कुछ राष्ट्रमंडल देशों ने जीडीपी ग्रोथ और प्रति व्यक्ति आय में ब्रिटेन को पार कर लिया है और कोई कारण नहीं है कि वो आसानी से मान जाएं.
कम से कम, ये हमें अपनी ताकत दिखाने के लिए एक और वैश्विक मंच देता है. पहले से ही भारतीय राष्ट्रमंडल की कुल आबादी 2.4 अरब के आधे से भी ज्यादा हैं. 2018 की एक रिपोर्ट में भारत को अंतर-राष्ट्रमंडल व्यापार और निवेश में तेजी लाने का श्रेय दिया गया है, और इसका अनुमान है कि 2020 तक ये 700 अरब डॉलर को पार कर जाएगा.
अंत में, यूरोपीय यूनियन से ब्रिटेन का बाहर निकला अनिश्चितता पैदा तो करता है, लेकिन ये सहयोग और समझौते के नए अवसर भी प्रदान करता है. ब्रेग्जिट के बाद की दुनिया में हमारे द्विपक्षीय संबंधों की रूपरेखा तय करने के लिए कड़ी मेहनत और समझौते की शर्तों को तय करने की असली चाहत की जरूरत होगी. अभी तक ब्रिटेन ने इसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई है.
आगे बढ़ने के लिए, भारत ब्रिटेन को प्रोत्साहित और आकर्षित कर सकता है, साथ ही धैर्य के साथ बातचीत भी शुरू कर सकता है, लेकिन इसे किसी भी कीमत पर झुकना नहीं चाहिए: वीजा नियम को उदार बनाए बिना कोई व्यापार सौदा नहीं होना चाहिए. भारत को ब्रिटेन के लिए मदद भरा हाथ बढ़ाने में खुशी मिलनी चाहिए, जब तक कि वो भी हमारे लिए ऐसा ही करते रहें.
इस आर्टिकल को English में पढ़ने के लिए क्लिक करें: Will or Won’t Britain Brexit? Either Way, India Stands to Gain
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