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BJP से अलगाव - शिवसेना के लिए नफा या नुकसान?

अगर शिवसेना-एनसीपी की सरकार बनती है तो कोई ताज्जुब नहीं की कई फ्लैगशिप योजनाओं का चेहरा आदित्य बनें

मेघनाद बोस
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Updated:
(फोटो:क्विंट हिंदी)
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(फोटो:क्विंट हिंदी)

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कुर्सी के लिए शिवसेना ने बीजेपी से कट्टी कर ली है. स्टेज सेट हो चुका है. तो अपने स्वाभाविक सहयोगी से अलग होने का शिवसेना को क्या फायदा होगा और क्या घाटा होगा? कुर्सी तो मिलेगी लेकिन वोटर के गुस्से का क्या? सियासत की तराजू में इन दोनों में किसका पलड़ा भारी है?

उद्धव ठाकरे ने कहा है कि महाराष्ट्र में शिवसेना का सीएम उनके पिता और शिवसेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे का ख्वाब था. अगर शिवसेना एनसीपी के साथ सरकार बनाती है तो सत्ता के समीकरण में उसका पलड़ा पिछले पांच सालों की तुलना में ज्यादा रहेगा, क्योंकि पिछले साल महाराष्ट्र में शिवसेना नंबर दो की ही खिलाड़ी रही.

बीजेपी और शिवसेना की विचारधारा एक ही तरह की है, सो काडर में इस बात का हमेशा डर था कि अगर शिवसेना ऐसे ही नंबर दो रही तो बीजेपी उसके वोट बैंक में सेंध लगा सकती है और यही वजह है कि सेना ने अगली सरकार में बराबर की हिस्सेदारी मांगी, जो आखिर में बीजेपी से अलगाव की वजह बनी.

आदित्य ठाकरे की बड़ी भूमिका?

सत्ता के शीर्ष पर शिवसेना रहेगी तो उम्मीद है कि आदित्य ठाकरे की ज्यादा चलेगी और उनका सियासी बायोडेटा भी मजबूत होगा. सेना को लगता है कि यूपीए 2 सरकार में शामिल न होकर राहुल गांधी ने गलती की थी. इससे उनके पॉलिटिकल करियर को नुकसान हुआ. ऐसी ही गलती वो आदित्य को लेकर नहीं करना चाहती.

अगर शिवसेना-एनसीपी की सरकार बनती है तो कोई ताज्जुब नहीं की कई फ्लैगशिप योजनाओं का चेहरा आदित्य बनें. साथ में उन्हें भारी भरकम मंत्रालय भी दिया जा सकता है या फिर वो डिप्टी सीएम भी बन सकते हैं. हालांकि सरकार बनने की सूरत में शायद एनसीपी भी डिप्टी सीएम का पद चाहेगी.

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जनादेश का अनादर-बदला लेगा वोटर?

बीजेपी-शिवसेना ने चुनाव पूर्व गठबंधन किया था. वोटर ने बीजेपी-सेना गठबंधन को चुना है, न कि शिवसेना-एनसीपी गठबंधन को.

बीजेपी-सेना को 161 सीटें मिली हैं, जो कि बहुमत के जादुई आंकड़े 145 से 16 ज्यादा हैं.

बीजेपी 164 सीटों पर लड़ी और 105 पर जीती. मतलब उसे 64% सीटों पर कामयाबी मिली. सेना 126 में से 56 सीट जीत पाई यानी उसका स्ट्राइक रेट रहा 44%.

मतलब ये है कि जनादेश न सिर्फ बीजेपी-शिवसेना गठबंधन के लिए था बल्कि महाराष्ट्र ने बीजेपी को ज्यादा कबूल किया था. ऐसे में चुनाव के बाद पाला बदलने से शिवसेना की साख को धक्का पहुंच सकता है. काडर भी निराश हो सकता है कि जिस कांग्रेस-एनसीपी को हराने के लिए उन्होंने इतनी मेहनत की, पार्टी उसी के साथ चली गई.

खासकर सरकार बनाने के लिए कांग्रेस से समर्थन लेना शिवसेना काडर को नापसंद हो सकता है, क्योंकि सेना के काडर में कांग्रेस को लेकर ज्यादा विरोध है.

बीजेपी से अलग होकर एनसीपी-कांग्रेस के साथ जाना शिवसेना को शॉर्ट टर्म में भले फायदा पहुंचाए, लेकिन लॉन्ग टर्म में उसे घाटा हो सकता है. हालांकि अगर शिवसेना एनसीपी के साथ पांच साल कामयाबी से सरकार चला ले तो हो सकता है कि नुकसान की कुछ भरपाई हो सकती है.

मुश्किल गठबंधन, अस्थिर सरकार?

महाराष्ट्र में आखिरी बार 1990 के विधानसभा चुनाव में कोई अकेली पार्टी सरकार बनाने में सफल हुई थी. यह काफी समय पहले की बात है- करीब 29 साल पहले. शरद पवार उस वक्त कांग्रेस में थे, न तो बीजेपी, न ही सेना कभी राज्य की सत्ता में आयी थी.

महत्वपूर्ण यह है कि पिछले 24 सालों से, महाराष्ट्र में गठबंधन की राजनीति हावी रही है. इसलिए, अब सेना को एनसीपी के साथ गठबंधन करने या कांग्रेस से समर्थन लेने में झिझक नहीं हो रही. लेकिन इस तरह के गठबंधन की स्थिरता पर हमेशा सवाल उठते रहेंगे.

अगर देखा जाए, तो सेना-एनसीपी के पास 110 सीटें हैं. बहुमत के आंकड़े से 35 कम.

सरकार बनाने के लिए, उन्हें कांग्रेस के 44 विधायकों की जरूरत होगी. अभी कांग्रेस भले ही समर्थन दे दे लेकिन किसी भी समय, अगर कांग्रेस अपना समर्थन वापस लेने का फैसला करती है तो सेना-एनसीपी सरकार विश्वास मत खोने की स्थिति में रहेगी. सेना और कांग्रेस के वैचारिक मतभेदों को देखते हुए, यह सरकार हमेशा तलवार की धार पर चलेगी.

BMC में सेना को मिला एक मजबूत प्रतिद्वंदी

2017 मुंबई नगर निगम चुनावों में, बीजेपी ने रिकॉर्ड जीत हासिल की थी. वो शिवसेना की 84 सीटों से सिर्फ 2 सीट कम पर थी. अब, गठबंधन टूटने के साथ ही, देश के सबसे धनी नगर निगम यानी BMC में सेना-बीजेपी आमने-सामने होंगी.

NDA से अलग होने का परिणाम

नेशनल पॉलिटिक्स में शिवसेना लंबे समय से बीजेपी की एक महत्वपूर्ण सहायक पार्टी रही है. लेकिन पिछले कुछ सालों में शिवसेना ही बीजेपी की सबसे ज्यादा आलोचना करने वाली पार्टी भी रही. हालांकि शिवसेना के एनडीए से बाहर होने के बाद बीजेपी पर संसद में ज्यादा कुछ असर नहीं पड़ने वाला है, लेकिन अपनी सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी को खोना बीजेपी के लिए नेशनल लेवल पर कोई अच्छी खबर नहीं है.

शिवसेना का कुछ मुद्दों पर बीजेपी के जैसा ही रवैया और विचारधारा रही है. जिनमें राम मंदिर और यूनिफॉर्म सिविल कोड जैसे मुद्दे शामिल हैं. इन मुद्दों पर एनसीपी के साथ उलट सोच के बावजूद सेना राज्य में उसकी सहयोगी बनी रह सकती है. आखिरकार देश के दूसरे सबसे बड़े राज्य की सत्ता में काबिज होना राजनीतिक रूप से काफी अहम है. पिछले तीन हफ्तों में जो कुछ भी देखा गया, उससे बिल्कुल यही साबित होता है.

फिलहाल ऐसा लग रहा है कि बीजेपी को शिवसेना की एक जिद ने पूरी तरह नाकाम कर दिया है. लेकिन पिछले कुछ हफ्तों में जो कुछ भी हुआ है, उसके बाद इस बात की गारंटी नहीं दी जा सकती कि आगे महाराष्ट्र में महाभारत नहीं होगा.

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Published: 11 Nov 2019,08:41 PM IST

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