क्या आप जानते हैं कि 'पेरिस समझौता' क्या है?

क्लाइमेट चेंज पर "कानूनी रूप से बाध्यकारी" अंतरराष्ट्रीय संधि पेरिस समझौता के बारे में जानिए

साधिका तिवारी
न्यूज वीडियो
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<div class="paragraphs"><p>पेरिस समझौता के बारे में जानिए</p></div>
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पेरिस समझौता के बारे में जानिए

(फोटो: altered by Quint Hindi)

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वीडियो एडिटर: राहुल सांपुई

आज The Climate Change Dictionary में हम 2015 के पेरिस एग्रीमेंट के बारे में बात करने वाले हैं जो जलवायु परिवर्तन यानी क्लाइमेट चेंज पर "कानूनी रूप से बाध्यकारी" अंतरराष्ट्रीय संधि है. ये क्लाइमेट चेंज की ग्लोबल पॉलिटिक्स मेंबहुत महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक घटनाओं में से एक है.

2015 में COP21 पेरिस में हुआ था. COP मतलब कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज. अब समझने के लिए इसे ऐसे समझिए कि ये COP क्लाइमेट चेंज वालों का जगराता है.

दिसंबर 2015 में पेरिस में COP21 के दौरान 196 देश या पार्टियों ने इस संधि को अपनाने का फैसला किया, जिसका असल मकसद ग्लोबल वार्मिंग को कम करना था.

ग्लोबल वार्मिंग को सीमित करने का मतलब है हमारी धरती, हमारे ग्लोब के टेम्परेचर औद्योगिक क्रांति से पहले के जमाने वाले तापमान से 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा न बढ़ने देना. उसी इसके नीचे रखना फिलहाल ये तापमान 1.1 डिग्री सेल्सियस ज्यादा है.

2 डिग्री सेल्सियस जरूरी क्यों है?

अगर पृथ्वी 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा हो जाती है तो दुनिया की तबाही का जो सीन आपने फिल्मों में देखा होगा वो सच हो सकता है.. पिघलते हुए ग्लेशियर, पोलर बीयर की मौत, बाढ़, सूखा, हीट वेव, कोल्ड वेव, मतलब धीरे-धीरे मरना..

पृथ्वी का टेम्परेचर कैसे कंट्रोल किया जाएगा?

ये होगा अगले करीब एक दशक में.. अगले एक दशक में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को “शीर्ष पर" पहुंचा कर...मतलब एक बार जब हम उत्सर्जन के इस ग्राफ के टॉप पर पहुंच गए... उसके बाद ये नीचे गिरना शुरू हो जाएगा. कार्बन नेट जीरो 2050 या 2070 तक करने का लक्ष्य रखा गया है.

नेट जीरो एमिशन का मतलब ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन जीरो करना नहीं है बल्कि ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन मतलब एमिशन को दूसरे कामों से बैलेंस करना है.

अब आपको ऐसा लगेगा कि ये तो सही बात है, इतनी जरूरी चीज पर काम करना चाहिए. जीने-मरने का सवाल है. पूरी दुनिया को बचाने की बात है लेकिन ऐसी बातें हो नहीं रही थीं, जब तक पेरिस समझौता हुआ नहीं था.

पेरिस समझौते के तहत इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि क्लाइमेट चेंज को एक ग्लोबल जिम्मेदारी के रूप में स्वीकार किया गया और इससे निपटने के लिए देशों के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए. अब जब ये तय हो गया कि ये मामला सीरियस है और इस पर काम करना पड़ेगा.

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राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान

इसके तहत देश ऐलान करते हैं कि वो क्लाइमेट चेंज की इस परेशानी से निपटने में अपना योगदान देंगे और इसके तहत वो क्या क्या कदम उठाएंगे, साथ ही ये भी सुनिश्चित करना था कि वो क्लाइमेट चेंज के चलते आने वाली संकट से निपटने के लिए अपने-अपने देशों में तैयारी भी कर रहे हैं.

आपने एवेंजर्स देखा है, जिसमें सुपर हीरोज एक साथ मिलकर धरती को बचाने के लिए और थानोस को हराने के लिए साथ में लड़ते हैं और इसके साथ ही एवेंजर्स अपने-अपने प्लेनेट या देशों की देखभाल भी करते हैं, जैसे थॉर अपने प्लेनेट को राग्नारोक से बचाने की कोशिश करता है.

पर जब हम एवेंजर्स के एक ग्रुप को थानोस के खिलाफ एक साथ लड़ते हुए देखते हैं तो सबका कॉन्ट्रीब्यूशन एक जैसा नहीं होता है. सब की जरूरत होती है.

सामान्य लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारियां

क्लाइमेट चेंज को लेकर देशों की एक समान जिम्मेदारी थी. इन जिम्मेदारियों को बराबर नहीं होना था. सभी देशों का योगदान अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार अलग होना था. उदाहरण के लिए थानोस के खिलाफ हमारे पड़ोस के स्पाइडरमैन से कहीं ज्यादा पावरफुल कैप्टन मार्वल या एक गॉड जैसे थॉर से ज्यादा योगदान की उम्मीद की जाएगी क्योंकि उनकी शक्तियां, क्षमताएं और संसाधन अलग-अलग हैं.

इसी तरह विकसित राष्ट्र और ऐतिहासिक प्रदूषक जो इस क्लाइमेट चेंज के लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं. जैसे UK या US से उम्मीद की जाती है कि उनका योगदान ज्यादा हो साथ ही ये विकासशील देशों को अपने क्लाइमेट टारगेट को हासिल करने में भी मदद करें. और भारत, दक्षिण अफ्रीका जैसे विकासशील देश जिन्होंने ज्यादातर विनाशकारी जलवायु घटनाओं को झेला है. इनका योगदान कम रहेगा.

विकसित देशों ने विकासशील देशों से वादा किया कि वो उनकी मदद करेंगे पर कैसे?

  • फाइनेंशियल सपोर्ट

  • टेक्नोलॉजी

  • क्षमता बढ़ाना

अब ये सब सुनने में बहुत अच्छा लगता है, जैसे हम साथ-साथ हैं का एक बड़ा परिवार लेकिन यहां भी बॉलीवुड फिल्मों की तरह कई प्लॉट में ट्विस्ट हैं. विकसित देश अपने NDC के साथ महत्वाकांक्षी और अपने वादों के प्रति ईमानदार नहीं रहे हैं.

विकासशील देश अपनी विकास की जरूरत का हवाला देते हुए ज्यादा वक्त अधिक उदार लक्ष्य और छूट चाहते हैं और विकसित देश उन पर दबाव डाल रहे हैं कि वो ये सब थोड़ा जल्दी करें. साथ ही विकासशील देश की मदद करने के वादे पूरे करने में भी हमारी विकसित दुनिया विफल रही है. विकासशील देश से भी 2050 तक कार्बन नेट जीरो हासिल करने की उम्मीद लगभग उसी समय जब विकसित देश करेंगे. CBDR के समानता के वसूल के खिलाफ जाते हैं जो पेरिस समझौते के लिए महत्वपूर्ण था. आज जब हम बात कर रहे हैं 2015 के पेरिस समझौता कि जो उस वक्त एक बड़ा मील का पत्थर जान पड़ रहा था वो अब टूटता हुआ नजर आ रहा है.

विकासशील देश क्लाइमेट चेंज से निपटने में मदद करने के लिए इस शर्त पर सहमत हुए थे कि

विकसित देश उनकी मदद करेंगे और अब विकसित देश अपने इस वादे से मुकर रहे हैं और चूंकी विकसित देश मदद नहीं कर रहे तो विकासशील देश भी NDC का वादा पूरा करते नहीं दिख रहे हैं.

हम विकसित दुनिया के किए गए पहले और सबसे महत्वपूर्ण वादे क्लाइमेट फिनांस पर विस्तार से चर्चा करेंगे हमारे अगले वीडियो में.. और अगली कहानी इस से भी काफी ज्यादा नाटकीय होगी तो हमारा अगला विडियो जरूर देखिएगा.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

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