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वीडियो एडिटर: संदीप सुमन
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशभर में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी NRC लागू करने पर फिलहाल तो रोक लगा दी है, लेकिन सरकार में NRC वापस लेने के बारे में कोई सुगबुगाहट नहीं है. मई 2019 में मोदी ने फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल एक्ट 1964 में संशोधन की दिशा में पहला अहम कदम उठाया. मोदी ने इस कानून को पूरे देश में लागू कर दिया.
इससे राज्य सरकारों को अपनी जरूरतों के मुताबिक फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल में बदलाव के अधिकार मिल गए. अब सवाल उठता है कि अब केन्द्र सरकार फॉरिन ट्रिब्यूनल को सभी राज्यों में लागू क्यों करना चाहती है?
फॉरेन ट्रिब्यूनल के क्या प्रावधान हैं?
NRC में कोई भी व्यक्ति अगर अपनी नागरिकता साबित करने में नाकाम रहता है, तो उसे इसे साबित करने के लिए फॉरिन ट्रिब्यूनल में अपील करनी होगी. असम में जब NRC लागू किया गया था, तो वहां ऐसे कई ट्रिब्यूनल बनाए गए.
आरोप है कि अधिकारियों ने ढंग से जांच नहीं की. मंदर ने बताया कि जांच के लिए नियम-कानून तय हैं. लेकिन असम में चुनाव आयोग और असम बॉर्डर पुलिस के अधिकारियों ने बिना जांच किए वैध नागरिकों पर भी अवैध होने के आरोप लगा दिए. जिन वेरिफिकेशन फॉर्म्स को जांच अधिकारियों को भरना था, अक्सर वो खाली पाए गए. इसके बाद भी लोगों को फॉरेन ट्रिब्यूनल के लिए रेफर कर दिया गया. इस तरह बिना वजह परेशान करने के कई मामले सामने आए, लेकिन एक भी जांच अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई.
दूसरा मुद्दा है कि असम फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल्स ने भारी संख्या में एक्स-पार्टी आदेश दिये. इसका मतलब है कि जिस व्यक्ति पर विदेशी होने का आरोप लगा, उसे ट्रिब्यूनल के सामने अपनी सफाई देने का या अपना पक्ष रखने का मौका नहीं मिला. राज्य सरकार ने जो कागजात पेश किये, ट्रिब्यूनल ने सिर्फ उन्हीं के आधार पर अपना फैसला सुना दिया.
असम ट्रिब्यून में छपी एक खबर के मुताबिक दिसंबर 2016 तक 26 हजार से ज्यादा मामलों में एक्स-पार्टी ऑर्डर दिए गए थे. मंदर ने बताया कि सरकार ने कमजोर तबके के लोगों को कानूनी मदद तक नहीं पहुंचाई. अपनी नागरिकता साबित करने के लिए ट्रिब्यूनल में केस लड़ने वाले कई लोग आर्थिक रूप से कमजोर थे. लिहाजा उन्हें अपना केस लड़ने के लिए सरकार की ओर से मदद मिलना जरूरी था.
तीसरा मुद्दा अवैध नागरिक करार देने के वजह को लेकर है. ट्रिब्यूनल ने कई मामलों में नहीं बताया कि कई लोगों को आखिर किस कारण विदेशी करार दिया गया. जबकि कानूनी तौर पर वजह बताना जरूरी है.
चौथा मुद्दा है फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल के सदस्यों की सदस्यता. इनकी नियुक्ति राज्य सरकार सीमित समय के लिए करती है. सरकार के पास सदस्य मनोनीत करने का अधिकार होता है. किसी सदस्य की सदस्यता बढ़ाई जाए या नहीं, ये भी सरकार तय कर सकती है. इस कारण ट्रिब्यूनल के सदस्य पूरी आजादी से अपना काम नहीं कर सकते हैं. कई सदस्य राज्य सरकार के हितों को ध्यान में रखकर काम कर सकते हैं.
असम में NRC के तहत एक हजार से ज्यादा फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल स्थापित किये गए. इन पर जमकर खर्च किया गया, जबकि लोगों की परेशानियों की फेहरिस्त भी काफी लम्बी है. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने कई खामियां उजागर किये. क्या हम देश के करोड़ों लोगों का भविष्य अपनी मनमर्जी करने वाले फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल्स के भरोसे छोड़ सकते हैं?
पांचवां मुद्दा नियमों की अनदेखी का है. फॉरिन ट्रिब्यूनल अमेंडमेंट ऑर्डर 2012 के मुताबिक किसी भी केस का निपटारा 120 दिनों में करना होता है. ट्रिब्यूनल्स को अधिकार है कि मामलों के जल्द निपटारे के लिए वो अपनी मर्जी के मुताबिक प्रक्रिया में बदलाव कर सकता है. मंदर का कहना है कि इससे ट्रिब्यूनल्स को मनमानी करने की छूट मिल जाती है और वो अपनी ताकत का दुरुपयोग करते हैं.
फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल्स के फैसले के खिलाफ राज्य के हाई कोर्ट में अपील नहीं की जा सकती. अगर उन सुबूतों से जुड़ी कोई परेशानी हो, जिनके आधार पर ट्रिब्यूनल ने फैसला दिया है, तभी हाई कोर्ट दखल दे सकता है. हर्ष मंदर जैसे एक्टिविस्ट का कहना है कि ट्रिब्यूनल के फैसले के खिलाफ अपील के लिए ऊपरी अदालत का गठन जरूरी है, क्योंकि किसी की नागरिकता पर सवाल उठाने का मसला काफी गंभीर होता है.
मोदी सरकार ने NRC लागू करने पर फौरी रोक तो लगा दी है. लेकिन उसे फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल्स के मुद्दे पर भी अपनी मंशा साफ करनी चाहिए. इनसे जुड़ी कई खामियां सामने आई हैं... असम में NRC लागू करने का भारी खामियाजा भुगतना पड़ा है... फिर भी देशभर में फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल्स गठन करने के कानून पर कोई आंच नहीं आई है और बेहद चिंता की बात है.
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