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“आई एम बैक इन दि यूएसएसआर, यू डोंट नो हाउ लकी यू आर ब्वॉय”
इससे अजीब कुछ नहीं हो सकता था कि मैं जब सोकर उठा तो मेरे मन में ऋषिकेश में तैयार हुए बीटल्स के इस गीत के बोल गूंज रहे थे. मेरा अंदाज है कि सपने आपको कई बार भविष्य का अंदाजा उसी तरह दे देते हैं जैसे वो किसी पूर्वाभास पर आधारित हो. क्योंकि सुबह अखबार की जिस पहली हेडलाइन पर मेरी नजर गई, वो कुछ इस तरह की थी: “मोदी के ऑफिस ने रेल विवाद के बाद भारतीय उत्पादों के इस्तेमाल पर जोर दिया है”. मैंने चौंककर अपनी आंखें मलीं. मैंने खुद को चिकोटी काटकर देखा कि कहीं मैं सो तो नहीं रहा. क्या हम 1970 के दशक में लौट आए थे? वो युग जो सरकार-नियंत्रित (या, सरकार के वशीभूत) अर्थव्यवस्था और संरक्षणवाद का था...
तथ्य उलझाने वाले हैं. मोदी सरकार ने (मेक इन इंडिया को प्राथमिकता देने के लिए) 2017 का पब्लिक प्रोक्योरमेंट ऑर्डर जारी किया है जिसमें कहा गया है कि “हर टेंडर की जांच भारतीय निर्माताओं के दृष्टिकोण से की जानी चाहिए”. इसमें स्थानीय निर्माताओं को कीमतों में सीधा 20%, जी हां, बीस फीसदी, का (अनुचित) फायदा मिलेगा, कार्यक्षमता और उपभोक्ता हितों को भूल जाइए! और अगर कोई विदेशी सप्लायर इसके बाद भी बोली जीतने में कामयाब रहता है, ऑर्डर का आधा हिस्सा भारतीय निर्माताओं को ही मिलेगा.
फिलहाल मक्खी निगल रही है भारतीय रेल, पटरियों के आधुनिकीकरण के जिसके ग्लोबल टेंडर को निरस्त किया जा सकता है, अगर वो सेल और जेएसपीएल जैसी भारतीय कंपनियों को प्राथमिकता नहीं देती. फिर चाहे इन कंपनियों के पास काम पूरा करने की क्षमता या दक्षता है या नहीं. और तो और, रेलवे को 20% ज्यादा कीमत देनी होगी, और समय की बर्बादी अलग से.
मेरा दिमाग अप्रैल 2013 की तरफ लौटता है, जब मैंने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री (और प्रधानमंत्री पद के दावेदार) नरेंद्र मोदी के साथ ‘थिंक इंडिया डायलॉग’ किया था. विषय था वो दिलचस्प नारा “मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस” जो उन्होंने दिया था.
बदकिस्मती से, 43 महीने बीतने के बाद, मोदी सरकार के ऊपर ‘विशालकाय सरकार’ चलाने का ठप्पा लगा है. हर दिन बीतने के साथ ये सरकार ज्यादा बड़ी और ज्यादा दखल देने वाली होती जा रही है. इसके नारे को अब बदलकर “मैक्सिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम इकोनॉमिक स्टैटिज्म” (अधिक बड़ी सरकार, अर्थव्यवस्था पर अधिक नियंत्रण) किया जा सकता है.
लेकिन नया साल हमेशा उम्मीदें जगाता है, क्या मोदी सरकार 2018 में “18 की उम्र वाला जोश” हासिल कर सकती है?
मेरा मानना है कि नए साल में सिर्फ 3 संकल्पों से वो कई अहम सुधार कर सकती है.
गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) एक बहुत बड़ा रिफॉर्म है. भारत जैसे विविधता और संघीय व्यवस्था वाले देश में एक टैक्स लगाया जाना और सभी कमजोरियों और मनमुटाव को दूर करना एक बड़ी उपलब्धि है. और इसके लिए मोदी और जेटली को शाबासी मिलनी चाहिए. इसलिए पेट्रोलियम, शराब, रियल एस्टेट को जीएसटी से बाहर रखने और कुछ राज्यस्तरीय टैक्सों का जारी रहना भी कुछ हद तक स्वीकार्य है.
लेकिन तीन ऐसे कदम हैं जो सरकार के गैर-जरूरी दखल के उदाहरण हैं और मोदी सरकार की पहल को बिगाड़ सकती हैं:
इन तीन भयानक कदमों को पीछे हटाने भर से मोदी सरकार की छवि फिर से बिजनेस को बढ़ावा देने वाले प्रशासन की हो सकती है. 2018 में इसे कर डालिए, सर.
मोदी सरकार ने बैंक रिकैपिटलाइजेशन बॉन्ड जारी करने का ऐलान कर खूब तारीफें बटोरी हैं. सच कहूं तो, ये एक ऐसा पुरातनपंथी कदम है कि इसकी तारीफ सुनकर मैं नि:शब्द रह गया. इसका इस्तेमाल 1991-92 में हुआ था जब देश दिवालिया था और हाथ की सफाई दिखाकर खुद को बचाए रखने की सरकार की कोशिशें कुछ हद तक न्यायसंगत थीं. ये और कुछ नहीं बल्कि बैंक खातों में लायबिलिटीज को एसेट साइड की तरफ कर देना, और कंटिन्जेंट लायबिलिटी को बैलेंस शीट से बाहर कर देना है.
अगर किसी निजी कंपनी के मालिक ने ऐसा किया होता तो उसे सार्वजनिक कोष के दुरुपयोग के लिए जेल जाना पड़ता. लेकिन आर्थिक आपातकाल की वजह से सरकार ऐसा करके भी 1992 में बच गई.
तो फिर क्या और किया जा सकता था? सोचा जाए तो ढेरों ऐसे तरीके हैं जो इक्विटी की अच्छी समझ रखने वाले विद्वान दे सकते हैं. मिसाल के लिए, डीप डिस्काउंट राइट्स इश्यू लाया जा सकता था, जिसके साथ सरकारी गारंटी वाले वॉरंट जोड़े जाते और इसमें उतनी ही रकम की गारंटी देनी होती जितनी सरकार बैंक रिकैपिटलाइजेशन के लिए देने जा रही है. इस एक कदम से, आप दोगुनी इक्विटी पूंजी जुटा सकते थे जबकि कैश लायबिलिटी उतनी ही रहती.
इकलौता ये फैसला मोदी सरकार को उसकी केंद्रीकृत सत्तात्मक छवि से छुटकारा दिला सकती है. आधार एक शानदार प्रयोग था, जिससे हर भारतीय को एक विशिष्ट पहचान मिलती और कल्याणकारी राज्य हर लाभार्थी तक सभी फायदों को बिना किसी चोरी और भ्रष्टाचार के पहुंचा पाता. विचार, अवधारणा और निष्पादन, तीनों में शानदार!
लेकिन मोदी सरकार ने कुछ और ही सोच लिया.
मैंने अंतिम दो उदाहरणों को जानबूझकर बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया है ताकि लोगों की बायो-मेट्रिक पहचान को “बिक्री के लिए उपलब्ध” करने के खतरों से वाकिफ कराया जा सके. ये अपराधियों और निरंकुश राज्यसत्ता के लिए तोहफा है. सरकार को 2018 में आधार के गैर-जरूरी इस्तेमाल/दुरुपयोग को वापस लेना ही चाहिए. ये जरूरी है.
हो सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी 2013 के अपने वादे “मिनिमम गवर्नमेंट” पर पूरी तरह अमल ना कर पाएं, लेकिन उनके चिर प्रतिद्वंद्वी,पंडित जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में कहूं तो वो फिर भी काफी हद उसके करीब पहुंच सकते हैं. उम्मीद है कि वो 2018 में ऊपर बताए गए तीनों संकल्प लागू करेंगें.
वरना, हममें से कई ये गीत गाते हुए मिलेंगे:
“आई एम बैक इन दि यूएसएसआर,
यू डोंट नो हाउ अनलकी यू आर ब्वॉय.”
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