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“रेगिस्तान का जहाज मतलब ऊंट को 2016 में राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार ने राजकीय पशु का दर्जा दिया, लेकिन 2 साल बाद भी ऊंट से जुड़े रोजगार की हालत नहीं सुधरी." ये बातें कहते हुए ऊंट चलाने वाले 60 साल के मीर सिंह सैलानियों के लिए अपने ऊंट को सजाने लगते हैं.
मीर सिंह को सरकार से एक और शिकायत है. वो कहते हैं, "सरकार गाय को तो माता मानती है क्योंकि वो दूध देती है, ऊंट भी रोजगार देती है लेकिन उस पर ध्यान नहीं है. वो इसे सिर्फ एक पशु मानती है."
दरअसल, हम अपनी चुनावी यात्रा के दौरान जैसलमेर के सम सैंड ड्यून्स पहुंचे. जहां हमने चुनावी शोर शराबे से दूर ऊंट और ऊंट से जुड़े रोजगार के हालात जानने की कोशिश की. साथ ही चुनाव से इन लोगों की जिंदगी पर क्या असर पड़ता है, ये भी जानने की कोशिश की.
बता दें कि राजस्थान के इन इलाकों में ऊंट रोजगार का सबसे बड़ा जरिया है. पहले ये ऊंट खेती, सफर और सामान ढोने के काम आते थे, लेकिन टेक्नोलॉजी ने इनकी जगह ले ली और अब ये सिर्फ रेगिस्तान में घूमने वालों के लिए आकर्षण भर है.
ऊंट चलान वाले सतवीर सिंह बताते हैं कि साल के 6 महीने ही लोग इन रेगिस्तानों में घूमने आते हैं, इसलिए 6 महीने रोजी-रोजी का जुगाड़ हो जाता है. लेकिन उसके बाद खेतों में काम करना पड़ता है या शहर में जाकर मजदूरी करनी पड़ती है. यहां ऊंट के अलावा कमाने का और कोई जरिया नहीं है.
अठारह साल के सुमेर खान बचपन से ही ऊंट चला रहे हैं, सुमेर ने आठवीं तक पढ़ाई की है. सुमेर बताते हैं,
ऊंट चलाने वाले अल्लाह बख्श बताते हैं कि पहले ये लोग दूसरे शहरों में या विदेशों में ऊंट बेचा करते थे, लेकिन सरकार ने अब इस पर रोक लगा दी है.
चुनाव के बारे में पूछने पर हबीब अली कहते हैं कि राजनीतिक पार्टी यहां आएं या ना आएं लेकिन उम्मीद है कि अब जियो का नेटवर्क आ जाएगा. लाइन बिछ रही है, टावर लगेंगे. बाकी जो पहले था वैसा ही आज है. कुछ नहीं बदला सिवाय जियो के.
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