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आर्थिक समाचारों की इन शोर मचाती सुर्खियों से आम लोगों का सिर चकरा रहा है. आर्थिक महाविनाश का डर मंडराने लगा है. लेकिन वाकई, क्या हालात इतने बुरे हो गए हैं? क्या चीन वाकई लीक से हटकर चलने वाले एक राष्ट्रपति के हाथों ऐसी सजा पाने लायक है?
अमेरिका के एक और लीक से हटकर चलने वाले राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने फरवरी 1972 में दुनिया की तस्वीर बदलकर रख दी थी. सैटेलाइट टेलीविजन की नई-नई शुरू हुई टेक्नोलॉजी के जरिए उनके ये शब्द सारी दुनिया में गूंज रहे थे, "अमेरिका इस बात को स्वीकार करता है कि ताइवान स्ट्रेट के दोनों ओर रहने वाली चीनी जनता चीन को एक देश और ताइवान को चीन का हिस्सा मानती है. अमेरिकी सरकार उनकी इस सोच के खिलाफ नहीं है."
दरअसल, चीन ने आर्थिक सुधारों के शुरुआती दो दशकों (1970/80) में अपनी ही जनता का 'क्रूर ढंग से' आर्थिक दोहन किया. ये आर्थिक दोहन अपने विस्तार और जबरदस्ती भरे तौर-तरीकों के लिहाज से काफी हद तक स्टालिन जैसा ही था.
किसानों का दोहन: चीन में सारी जमीन सरकार की मिल्कियत थी, इसलिए किसानों को बड़ी निर्दयता के साथ सिर्फ नाम भर मुआवजा देकर बेदखल कर दिया गया. इसके बाद वो जमीनें कारखाने लगाने और अंतरराष्ट्रीय स्तर का बुनियादी ढांचा खड़ा करने के लिए निवेशकों को बेच दी गईं, जिनमें बड़े विदेशी पूंजीपति भी शामिल थे.
मजदूरों का शोषण: मजदूरी की दरें जबरन कम रखी गईं, जिससे कारखानों के मालिकों ने अंधाधुंध मुनाफा कमाया, जबकि गांवों से आए गरीब लोग वाजिब मजदूरी या बेहतर कामकाजी हालात के अभाव में बेहद शोषणकारी रोजगार में फंसे रहने को मजबूर हो गए.
बचत करने वालों से छीना: चीन की सरकार ने ब्याज दरों को जबरन कम बनाए रखा, जिससे बचत करने वालों की पूंजी बेहद कम रिटर्न पर सरकार और निजी निवेशकों को मिल गई. इनमें विदेशी निवेशक भी शामिल थे. इस सस्ती पूंजी के कारण सरकारी कंपनियों, चीन के कुलीन पूंजीपतियों या बड़े विदेशी निवेशकों को बेहिसाब मुनाफा कमाने का मौका मिला.
कंज्यूमर को चूना लगाया: चीन ने सरकारी नियंत्रण के जरिये अपनी मुद्रा (रेनमिनबी) को जबरन सस्ता बनाए रखा. इससे कंज्यूमर को इंपोर्ट की गई चीजों के लिए ऊंचे दाम चुकाने पड़े जबकि अमेरिका या दूसरे देशों को एक्सपोर्ट की जाने वाली चीजें सस्ती हो गईं. दूसरी तरफ, विदेशी निवेशकों को चीन की संपत्तियां सस्ती कीमतों पर खरीदने का मौका भी मिला, जिससे उनके लिए मोटा मुनाफा बटोरने का एक और रास्ता खुल गया. इससे चीन की अर्थव्यवस्था में डॉलर का निवेश तेजी से बढ़ा.
यही वो समय था, जब देंग श्याओपिंग ने अपनी सबसे जबरदस्त चाल चली और सोवियत शैली के कोल्ड वॉर की गिरफ्त से बाहर आ गए. उनकी अगुवाई में चीन ने अंतरराष्ट्रीय अलगाव, सैन्यवाद और युद्ध की धमकियों का रास्ता छोड़ दिया.
अपनी किताब में मैंने बुनियादी ढांचे के विकास की इस मुहिम को "एस्केप वेलोसिटी" मॉडल कहा है. ऐसा तभी हो सकता है, जब कोई देश अपने सरप्लस फंड को इतनी तेज रफ्तार से निवेश करे कि वो धीमी विकास दर के चुंबकीय दुष्चक्र को तोड़कर आगे निकल जाए और एक ही क्रांतिकारी छलांग में ऊंची विकास दर, आमदनी और समृद्धि के एक नए रास्ते पर तेजी से फर्राटा भरने लगे.
चीन के सस्ते इंपोर्ट के कारण 90 के दशक और इक्कीसवीं सदी के शुरुआती सालों में अमेरिकी कंज्यूमर की भी चांदी हो गई.
इसी दौरान, चीन ने अपने अरबों डॉलर के भंडार का एक हिस्सा अमेरिकी ट्रेजरी बॉन्ड्स में भी लगाया, जिससे अमेरिकी ब्याज दरें गिरकर अपने न्यूनतम स्तर पर आ गईं. इससे शेयर्स और रियल एस्टेट की कीमतों में भारी उछाल आया. इस माहौल में अमेरिकी लोगों को लगा कि वो अचानक ही बेहद अमीर हो गए हैं, लिहाजा वो अपने उपभोग पर मनमाना खर्च करने लगे. ये दौर इतना ज्यादा खुशनुमा लग रहा था कि उसका लंबे समय तक चलना मुश्किल था. और यही हुआ भी.
उथल-पुथल और अनिश्चय के इस माहौल ने डॉनल्ड ट्रंप की सफलता के लिए स्टेज तैयार कर दिया था ! "चीन को सजा दो, एशियाई देशों से हमारी नौकरियां चुराने का हर्जाना वसूल करो, तभी अमेरिका बनेगा फिर से महान" - ट्रंप के इस विभाजनकारी संदेश की लोकप्रियता के लिए ये माहौल बिलकुल सटीक था.
राष्ट्रपति ट्रंप ने बीमारी की पहचान तो कर ली, लेकिन उसका इलाज चुनने में उन्होंने भारी भूल कर दी है.
उन्हें दुनिया के लोकतांत्रिक देशों के साथ अपने करीबी संबंधों का इस्तेमाल करके चीन के खिलाफ WTO में मोर्चा खोलना चाहिए था.
शायद रणनीति में सुधार करने का ये मौका अब भी बचा हुआ है, बशर्ते राष्ट्रपति ट्रंप ट्वीट करने और सहयोगियों को बर्खास्त करने से फुर्सत निकाल पाएं.
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