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वीडियो एडिटर- मो. इब्राहिम
सबसे पहले तो एक जोरदार सलाम सचिन और बिन्नी बंसल की उद्यमशीलता और फ्लिपकार्ट के उनके सहयोगियों की टीम के नाम. उन्होंने ये चमत्कारिक सफलता ऐसे माहौल में हासिल की,जब सरकार ने किसी दुश्मन की तरह काम करते हुए, पहले तो उनके हाथ बांधे और फिर कंपटीशन के भेड़ियों के बीच फेंक दिया. नियमों के नाम पर हुए इस विश्वासघात पर थोड़ी देर बाद बात करेंगे.
सबसे पहले मैं इस झूठ की पोल खोलूंगा,जिसका बड़े जोर-शोर से ढिंढोरा पीटा जा रहा है.
मैंने इस बयान में शामिल झूठ को हाइलाइट करने के लिए इटैलिक्स का इस्तेमाल किया है.
हां,ये "विदेशी" है क्योंकि जो हिस्सेदारी बिक रही है वो सिंगापुर की कंपनी की है,भारतीय कंपनी की नहीं.
नहीं, ये "सीधा" नहीं है,क्योंकि कैश कंपनी में आ नहीं रहा,बल्कि शेयरहोल्डर के पास जा रहा है. शेयर बाजार की क्लासिक शब्दावली में कहें, तो ये प्राइमरी (FDI) नहीं, बल्कि एक इनडायरेक्ट सेकेंडरी (FII) मार्केट ट्रांजैक्शन है.
यहां तक कि ये "निवेश" भी नहीं है, क्योंकि इस सौदे में डॉलर का इस्तेमाल किसी नए एसेट के निर्माण के लिए नहीं बल्कि मौजूदा इन्वेस्टर्स के पुराने शेयर खरीदने के लिए हो रहा है.
इस खबर का कड़वा सच उजागर करने वाली हेडलाइन कुछ ऐसी होनी चाहिए: भारत हुआ और दरिद्र, इस डिजिटल उपनिवेश के ई-कॉमर्स का कोहिनूर फ्लिपकार्ट बिका; विदेशी निवेश के साम्राज्यों ने अपने खजाने में भर लिया कैश.
ऊंचे ख्वाब देखने वाले 2 युवा इंजीनियर 2005 में IIT दिल्ली में मिले. उन्हें पता था कि जेफ बेजोस ने अमेजॉन की शुरुआत किताबों की ऑनलाइन बिक्री से की थी. अक्टूबर 2007 में उन्होंने फ्लिपकार्ट की शुरुआत की. ये किताबें बेचने वाली एक सीधी-सादी वेबसाइट थी. उन्होंने खरीदारों के घरों तक डिलीवरी शुरू की, टू-व्हीलर पर दरवाजे-दरवाजे गए. पहले साल में उन्हें सिर्फ 20 ऑर्डर मिले. लेकिन जल्द ही, एक प्राइवेट इक्विटी फंड ने उन्हें 10 लाख डॉलर के निवेश की पेशकश की.
“दोनों नौजवान इस पूंजी के जरिये अपना कारोबार आगे बढ़ाने के मौके को दोनों हाथों से लपकने के लिए बेचैन थे. लेकिन इसमें एक दिक्कत थी. भारत में ऑनलाइन रिटेल में एफडीआई यानी फॉरेन डायरेक्ट इनवेस्टमेंट पर पाबंदी थी (और एक कंप्यूटर के जरिए कुछ किताबें बेचने पर “ई-कॉमर्स” का डराने वाला ठप्पा लग जाता था!). ये एक मूर्खतापूर्ण और गुजरे जमाने की बेकार हो चुकी पॉलिसी थी. लेकिन कानून तो यही था.”
बेंगलूरु के इन लड़कों को लगा कि अब अपनी स्थानीय कंपनी को खत्म कर देना ही बेहतर होगा. उन्हें समझ आ गया था कि अगर कंपनी की मिल्कियत "भारतीय" बनी रही, तो नौकरशाहों को चकमा देने के लिए हर दिन नई चाल खोजनी पड़ेगी. लिहाजा, अक्टूबर 2011 में उन्होंने सिंगापुर में फ्लिपकार्ट प्राइवेट लिमिटेड के नाम से एक नई कंपनी बनाकर अपनी शेयरहोल्डिंग उसके हवाले कर दी.
उलझाने वाले इन नियमों में बार-बार हो रहे बदलावों की वजह से फ्लिपकार्ट को 8 अलग-अलग कंपनियां बनानी पड़ीं.3 सिंगापुर में और 5 भारत में. इनमें थोक और कैश-एंड-कैरी कारोबार, टेक्नॉलजी प्लेटफॉर्म और पेमेंट गेटवे सर्विस के लिए बनाई गई अलग-अलग कंपनियां शामिल हैं. इस भयानक रूप से उलझाऊ और जटिल ढांचे में शामिल कई निष्क्रिय कंपनियां तो सिर्फ पर्देदारी के लिए ही बनाई गई थीं.
डब्ल्यूएस रिटेल की करीब आधी हिस्सेदारी के "मालिक" अब फ्लिपकार्ट के 2 पूर्व कर्मचारी थे ! सचिन और बिन्नी बंसल और उनके रिश्तेदारों ने बोर्ड से इस्तीफा दे दिया. फ्लिपकार्ट की 75% बिक्री अब भी डब्ल्यूएस रिटेल के जरिये ही हो रही थी, ताकि "ऑफलाइन ट्रांजैक्शन" की काल्पनिक कहानी जारी रह सके.
अगर ऐसा होता, तो फ्लिपकार्ट की नींव रखने वालों का अपने बेहद हिम्मत से खड़े किए कारोबार पर आज भी पर्याप्त नियंत्रण होता. उनकी निगाह 2025 तक 500 अरब डॉलर की कंपनी खड़ी करने पर होती. और उनके नाम भी शायद जेफ, मार्क, जैक और पोनी के साथ एक ही सांस में उसी सम्मान के साथ लिए जाते !
लेकिन हाय रे दुर्भाग्य कि ऐसा हो न सका! शर्म करो भारत सरकार (यूपीए हो या एनडीए) !
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