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कैमरा: पुनीत भाटिया, मुकुल भंडारी
वीडियो एडिटर: पुनीत भाटिया
एक्टर: बादशा रे, ज़िजाह शेरवानी
रश्क-ए-क़मर उस शख्स के लिए कहा जाता है जिसमें चांद जैसी खूबियां हों. इसे मूल रूप से उर्दू कवि फना बुलंद शहरी ने लिखा था और नुसरत फतेह अली खान ने 1988 में गाया था.
ये कव्वाली ऐसे आकर्षण को लेकर है, जिसको बयां करने के लिए शायर चांद, शराब और उसकी प्रेमिका का उसके ऊपर हुए असर जैसे प्रतीकों का इस्तेमाल कर रहा है.
“मेरे रश्क-ए-क़मर तूने पहली नज़र
जब नज़र से मिलाई मज़ा आ गया
बर्क़ सी गिर गई काम ही कर गई
आग ऐसी लगाई मज़ा आ गया”
बर्क का मतलब है बिजली, तो शायर उन इच्छाओं और जुनून के बारे में बता रहा है, जो उसकी प्रेमिका ने उसके अंदर जगाई हैं. रश्क-ए-क़मर उर्दू के शायर दाग देहलवी की शायरी में भी मिलता है. उन्होंने एक बार लिखा था:
“तेवर तेरे ऐ रश्क-ए-क़मर देख रहे हैं
हम शाम से आसार-ए-सहर देख रहे हैं”
शायर चांद से भी खूबसूरत अपनी प्रेमिका के प्यार में डूबा हुआ है और इस उम्मीद से बेचैन है कि वो फिर उससे मिल पाएगा. शायर अपनी प्रेमिका के हाव-भाव को देख रहा है और इंतजार कर रहा है उस इशारे का जब वो उससे मिल पाएगा.
शेर को कवि के डर के रूप में भी समझा जा सकता है कि रश्क-ए-क़मर, या वो शख्स जिसे शायर पसंद करता है, उसे छोड़ने वाला है. बिल्कुल वैसे ही जैसे सुबह के होने के साथ ही चांद भी चला जाएगा.
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