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8 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी को लेकर संसद की चर्चा में अपने विचार व्यक्त किए. उन्होंने अर्थशास्त्रियों की आलोचना करते हुए यह कहा कि नोटबंदी को जिन पैमानों पर आंका जा रहा है, वे पैमाने सही नहीं हैं. तो सवाल यह उठता है कि वे सही पैमाने कौन-से हैं. साथ ही यह कौन तय करे कि योजना सफल हुई है या नहीं?
अनेक अखबारों और टीवी चैनलों में कुछ अर्थशास्त्रियों ने अलग-अलग पैमाने बनाते हुए इस योजना को सफल बताया. कुछ ने कहा कि करदाताओं में बढ़ोतरी होगी (भगवती, देहेजिया, कृष्णा). कुछ ने कहा कि जमीन, जायदाद व तमाम अचल संपत्ति के दाम गिरेंगे (आर्थिक सर्वेक्षण 2017).
कई अर्थशास्त्रियों ने तो यह दर्शाते हुए किताबें लिखी हैं कि दुनिया में नकद में व्यापार कम होना चाहिए. पीटर सेंड्स और केनेथ रोगोफ जैसे अंतराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित अर्थशास्त्रियों ने वही करने के लिए लिखा है, जो मोदीजी ने किया. ये हैं हॉर्वर्ड के अर्थशास्त्री, जिनकी बात मोदीजी ने सुनी और नोटबंदी की.
सेंड्स ने नोटों की राशि को लेकर सवाल उठाए. उन्होंने पहले प्रकाशित पत्रिकाओं में लिखा था कि सिर्फ 50 डॉलर (3000 भारतीय रुपये) से ज्यादा की राशि के नोटों पर रोक लगाने से ही बिना अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाए फायदा होगा.
रोगोफ की दलील यह थी कि भारत जैसे औद्योगिक और आधुनिक देश में नोटबंदी को धीरे-धीरे लागू करना चाहिए था. एकदम से झटका देने से अर्थव्यवस्था पर आघात होगा और फायदा कम, नुकसान ज्यादा पहुंचेगा.
भारत सरकार ने इसके बिलकुल विपरीत काम किया. भारत में उच्चतम विमुद्रित नोट की संख्या सिर्फ 15 डॉलर है और मोदीजी ने सिर्फ 4 घंटों का समय दिया था विमुद्रीकरण से पहले.
पर हम मानते हैं कि नीति की सफलता की जांच उन पैमानों पर की जाए, जिनकी वजह से इसे लागू किया था. 3 ऐसे कारण केंद्र सरकार ने बताए थे- भ्रष्टाचार को घटाना, जाली नोटों को खत्म करना और आतंकियों की फंडिंग को जड़ से उखाड़ना. एक-एक कर देखते हैं कि इस नीति ने इनमें से कौन-से लक्ष्य प्राप्त किए हैं.
इससे देश में नोटों का एक कालाबाजार फैल चुका है, जिसमें पुराने 500 और 1000 के नोट 100, 50 और 10 रुपये के नोटों में बदले जा सकते हैं. NIPFP की रिपोर्ट तो यह भी कहती है कि नकद में कालाधन सबसे कम रखा जाता है.
फिर भी अगर मान लें कि नकद में काफी कालाधन है, तो क्या यह नीति सफल हुई? नोटबंदी के लागू होने के बाद हाल ही में बीजेपी के मंत्री नए नोटों में कालाधन छुपाते हुए पकड़े गए. सिर्फ यही नहीं, बल्कि कई बैंकों के कर्मचारी और रिजर्व बैंक के अधिकारी भी ऐसे कई मामलों में शामिल पकड़े गए. स्पष्ट रूप से यह साबित हो गया कि कालाधन इस देश में अब भी है और आने वाले समय में रहेगा. नोटबंदी ने देश को लूटने वालों पर कुछ खास दबाव नहीं डाला है.
जाली नोटों का खात्मा इस योजना का एक और मकसद था. इसको मापने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक के कुछ आंकड़ों पर ध्यान देते हैं.
इतने से नोटों को पकड़ने के लिए इस तरह से सारी नकद राशि को अमान्य कर देना चिंता की बात है, क्योंकि पता नहीं सरकार आने वाले दिनों में और किन प्रमाणों व बेबुनियादी तर्कों के आधार पर अपनी नीतियां लागू कर दे.
पर फिर भी अगर मान लिया जाए कि 0.0007 फीसदी नोटों को पकड़ना भी एक बहुत बड़ी बात है और यह तर्क इस योजना के लिए सही है, तब भी अखबारों में छपी अनगिनत रिपोर्ट यह दर्शाती हैं कि जाली नोट नई मुद्रा में भी पाए गए हैं. रिजर्व बैंक ने यह दिखाने में कोई देरी नहीं की कि इन जाली नोटों के चलन की गलती उनकी नहीं है. आरबीआई का कहना है कि समय और मुद्रा की मांग की पाबंदियों की वजह से जो जल्दबाजी हुई, यह उसका दोष है.
एक जाली 2000 का नोट सिर्फ एक दिन बाद ही पकड़ा गया था. पंजाब में 42 लाख रुपये जाली नोटों में पकड़े गए. हैदराबाद में तो कुछ लोगों ने खुद ही रुपया छापने की मशीनें लगा ली थीं. यह योजना इस लक्ष्य पर भी खरा न उतर पाई.
अगर आतंकियों की फंडिंग रोकने की बात करें, तो वह इस नीति से हासिल नहीं होगा. आतंक फैलाने वाले ग्रुप कई गिरोह के जरिए पैसों को इधर से उधर करते हैं. भारतीय मुद्रा को बदलने से आतंकियों पर दबाव सिर्फ अस्थायी रूप से ही पड़ेगा. कुछ समय के लिए शायद आतंकी परेशान रहें, पर नए नोटों के जरिये भी आतंकी अपना काम जारी रख सकते हैं.
भारतीय सुरक्षा एजेंसियां यह भी जानती हैं कि 26/11 के हमलावरों ने क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल किया था. यह सबूत है कि नकद राशि के रूप को बदलने से आतंकियों को ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा. गैरकानूनी व्यापार इन हमलावरों की मदद करते हैं. अश्लील चित्र व सामग्रियों की बिक्री, चरस, गांजा व अन्य नशीली चीजों के व्यापार, गानों और फिल्मों की पाइरेसी से इन दहशतगर्दों को मनचाहा खजाना मिल जाता है, जिनका इस्तेमाल कर वे अपने काम को अंजाम देते हैं.
नोटबंदी एक राजनीतिक चाल थी. इसमें कुछ फायदे थे- आर्थिक और सामूहिक, पर नुकसान उन फायदों से कई गुना ज्यादा है. भारत के युवा अच्छे दिनों का इंतजार कर रहे हैं. पर जवाब में एक ही बात कह जा रही है, 'अच्छे दिन आएंगे'. भविष्य काल कब वर्तमान में बदलेगा, यह तो भविष्य में ही पता चलेगा.
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(प्रखर मिश्र ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में चेवेनिंग स्कॉलर हैं. ऋचा रॉय ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में लोक-नीति की पढ़ाई कर रही हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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